आज के ज़माने में बहुत कम लोगो में ही सच्ची लगन दिखायी देती है । modernization के इस दोर मे सभी लोग सब कुछ फटा फट चाहते। अकसर हमें अखबारों, न्यूज़ channels में ऐसी खबरे पढ़ने और सुनने को मिलती हैं कि रातोंरात कामयाबी ने कई लोगों के कदम चूमे। ऐसी खबरे देखकर और सुनकर हमारा भी मन करता है की हमे भी वो सब कुछ जल्दी से जल्दी मिले।
लेकिन सच्ची लगन का मतलब क्या होता है? सच्ची लगन का मतलब है ‘नाकामी या समस्याओं के बावजूद किसी भी हालत मे अपने मकसद या काम में मज़बूती से टिके या लगे रहना। EINSTEIN की यह कहानी सच्ची लगन का एक EXAMPLE है;
गीता मे भगवान कृष्ण
कहते है है की उनकी माया को पार करना अत्यंत मुश्किल है। उनकी माया को पार करना या उत्तीर्ण होना हर जीव की लिए मुमकिन नहीं है। लेकिन मन मे लगन अगर सच्ची हो तो भगवान भी आपके पीछे खड़े हो जाते है और असंभव काम भी संभव हो जाता है। इस बात पर हमेशा पूरा भरोसा रखिए कि अगर आप आप अपने काम में डटे रहते हैं, तो आप ज़रूर कामयाब होंगे अगर आपको यह article अच्छा लगा हो तो इसे शेयर कीजिये और आप अपने विचार comments के माध्यम से बता सकते है।
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आज हम फिर एक बार आपके समक्ष एक ऐसे मनुष्य की जीवनी (Biography) लेकर प्रस्तुत हैं जिन्होंने अपने जीवन में अपनी कड़ी मेहनत से न केवल सफलता के शिखर को छुआ, अपितु इतनी प्रसिद्धि भी प्राप्त की कि वह कई लोगों के प्रेरणा स्रोत बन गए – इनका नाम है “बिल गेट्स” (Bill Gates) | बिल गेट्स को किसी परिचय कि आवश्यकता नहीं है, वह पूरी दुनिया में अपने कार्यों से जाने जाते हैं | हम सभी यह भली भांति जानते हैं कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ Software Company “Microsoft” की नींव भी Bill Gates के द्वारा ही रखी गयी है | बिल गेट्स का परिवार (Family of Bill Gates)
बिल गेट्स का वास्तविक तथा पूर्ण नाम विलियम हेनरी गेट्स (William Henry Gates) है | इनका जन्म 28 October, 1955 को वाशिंगटन के सिएटल में हुआ |
इनके परिवार में इनके अतिरिक्त चार और सदस्य थे – इनके पिता विलियम एच गेट्स जो कि एक मशहूर वकील थे, इनकी माता मैरी मैक्सवेल गेट्स जो प्रथम इंटरस्टेट बैंक सिस्टम और यूनाइटेड वे के निदेशक मंडल कि सदस्य थी तथा इनकी दो बहनें जिनका नाम क्रिस्टी और लिब्बी हैं |
Bill Gates ने अपने बचपन का भी भरपूर आनंद लिया तथा पढ़ाई के साथ वह खेल कूद में भी सक्रिय रूप से भाग लेते रहे |
कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के प्रति बिल गेट्स की लगन (Bill Gates Passion for Computer Programming)
इसके पश्चात गेट्स डीईसी (DEC), पीडीपी (PDP), मिनी कंप्यूटर (Mini Computer) नामक सिस्टमों में दिलचस्पी दिखाते रहे, परन्तु उन्हें कंप्यूटर सेंटर कॉरपोरेशन द्वारा ऑपरेटिंग सिस्टम में हो रही खामियों के लिए 1 महीने तक प्रतिबंधित कर दिया गया |
इसी समय के दौरान उन्होंने अपने मित्रों के साथ मिलकर सीसीसी के Software में हो रही कमियों को दूर कर लोगों को प्रभावित किया तथा उसके पश्चात वह सीसीसी के कार्यालय में निरंतर जाकर विभिन्न प्रोग्रामों के लिए सोर्स कोड का अध्ययन करते रहे और यह सिलसिला 1970 तक चलता रहा |
इसके पश्चात इन्फोर्मेशन साइंसेस आइएनसी. लेकसाइड के चार छात्रों को जिनमें Bill Gates भी शामिल थे, कंप्यूटर समय एवं रॉयल्टी उपलब्ध कराकर कोबोल (COBOL), पर एक पेरोल प्रोग्राम लिखने के लिए किराए पर रख लिया। इसके पश्चात उन्हें रोकना नामुमकिन था |
मात्र 17 वर्ष कि उम्र में उन्होंने अपने मित्र एलन के साथ मिलकर ट्राफ़- ओ- डाटा नामक एक उपक्रम बनाया जो इंटेल 8008 प्रोसेसर (Intel 8008 Processor) पर आधारित यातायात काउनटर (Traffic Counter) बनाने के लिए प्रयोग में लाया गया |
1973 में वह लेकसाइड स्कूल से पास हुए तथा उसके पश्चात बहु- प्रचलित हारवर्ड कॉलेज (Harvard College) में उनका दाखिला हुआ | परन्तु उन्होंने 1975 में ही बिना स्नातक किए वहाँ से विदा ले ली जिसका कारण था उस समय उनके जीवन में दिशा का अभाव |
उसके पश्चात उन्होंने Intel 8080 चिप बनाया तथा यह उस समय का व्यक्तिगत कंप्यूटर (Personal Computer) के अन्दर चलने वाला सबसे वहनयोग्य चिप था, जिसके पश्चात बिल गेट्स को यह एहसास हुआ कि समय द्वारा दिया गया यह सबसे उत्तम अवसर है जब उन्हें अपनी स्वयं कि Company का आरम्भ करना चाहिए |
माइक्रोसॉफ्ट कंपनी का उत्थान (The rise of Microsoft Company)
MITS (Micro Instrumentation and Telemetry Systems) जिन्होंने एक माइक्रो कंप्यूटर का निर्माण किया था, उन्होंने गेट्स को एक प्रदर्शनी में उपस्थित होने कि सहमती दी तथा गेट्स ने उनके लिए अलटेयर एमुलेटर (Emulator) निर्मित किया जो Mini Computer और बाद में इंटरप्रेटर में सक्रिय रूप से कार्य करने लगा |
इसके बाद Bill Gates व् उनके साथी को MITS के अल्बुकर्क स्थित कार्यालय में काम करने कि अनुमति दी गयी | उन्होंने अपनी जोड़ी का नाम Micro-Soft रखा तथा अपने पहले कार्यालय कि स्थापना अल्बुकर्क में ही की | 26 नवम्बर, 1976 को उन्होंने Microsoft का नाम एक व्यापारिक Company के तौर पर पंजीकृत किया |
Microsoft Basic कंप्यूटर के चाहने वालों में सबसे अधिक लोकप्रिय हो गया था | 1976 में ही Microsoft MITS से पूर्णत: स्वतंत्र हो गया तथा Gates और Allen ने मिलकर कंप्यूटर में प्रोग्रामिंग भाषा Software का कार्य जारी रखा |
इनसे बाद Microsoft ने Albuquerque में अपना कार्यालय बंद कर Bellevue, Washington में अपना नया कार्यालय खोला | Microsoft ने उन्नति की ओर बढ़ते हुए प्रारंभिक वर्षों में बहुत मेहनत व् लगन से कार्य किया | गेट्स भी व्यावसायिक विवरण पर भी ध्यान देते थे, कोड लिखने का कार्य भी करते थे तथा अन्य कर्मचारियों द्वारा लिखे गए व् जारी किये गए कोड कि प्रत्येक पंक्ति कि समीक्षा भी वह स्वयं ही करते थे |
इसके बाद जानी मानी Company IBM ने Microsoft के साथ काम करने में रूचि दिखाई, उन्होंने Microsoft से अपने पर्सनल कंप्यूटर के लिए बेसिक इंटरप्रेटर बनाने का अनुरोध किया |
कई कठिनाइयों से निकलने के बाद गेट्स ने Seattle Computer Products के साथ एक समझौता किया जिसके बाद एकीकृत लाइसेंसिंग एजेंट और बाद में 86-DOS के वह पूर्ण आधिकारिक बन गए और बाद में उन्होंने इसे आईबीएम को $80,000 के शुल्क पर PC-DOS के नाम से उपलब्ध कराया | इसके पश्चात Microsoft का उद्योग जगत में बहुत नाम हुआ |
1981 में Microsoft को पुनर्गठित कर बिल गेट्स को इसका चेयरमैन व् निदेशक मंडल का अध्यक्ष बनाया गया | जिसके बाद Microsoft ने अपना Microsoft Windows का पहला संस्करण पेश किया | 1975 से लेकर 2006 तक उन्होंने Microsoft के पद पर बहुत ही अदभुत कार्य किया, उन्होंने इस दौरान Microsoft company के हित में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए |
बिल गेट्स का विवाह व् आगे का जीवन (Bill Gates Personal Life)
1994 में Bill Gates का विवाह फ्रांस में रहने वाली Melinda से हुआ तथा 1996 में इन्होंने जेनिफर कैथेराइन गेट्स को जन्म दिया | इसके बाद मेलिंडा तथा बिल गेट्स के दो और बच्चे हुए जिनके नाम रोरी जॉन गेट्स तथा फोएबे अदेले गेट्स हैं |
वर्तमान में बिल गेट्स अपने परिवार के साथ वाशिंगटन स्थित मेडिना में उपस्थित अपने सुन्दर घर में रहते हैं, जिसकी कीमत 1250 लाख डॉलर है |
बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन का उदय (Rise of the Bill & Melinda Gates Foundation)
वर्ष 2000 में उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (Bill and Melinda Gates Foundation) की नींव रखी जो कि पारदर्शिता से संचालित होने वाला विश्व का सबसे बड़ा Charitable Foundation था |
उनका यह Foundation ऐसी समस्याओं के लिए कोष दान में देता था जो सरकार द्वारा नज़रअंदाज़ कर दी जाती थीं जैसे कि कृषि, कम प्रतिनिधित्व वाले अल्पसंख्यक समुदायों के लिये कॉलेज छात्रवृत्तियां, एड्स जैसी बीमारियों के निवारण हेतु, इत्यादि |
परोपकारी कार्य (Charitable Work)
सन 2000 में इस Foundation ने Cambridge University को 210 मिलियन डॉलर गेट्स कैम्ब्रिज छात्रवृत्तियों हेतु दान किये | वर्ष 2000 तक Bill Gates ने 29 बिलियन डॉलर केवल परोपकारी कार्यों हेतु दान में दे दिए |
लोगों की उनसे बढती हुई उम्मीदों को देखते हुए वर्ष 2006 में उन्होंने यह घोषणा की कि वह अब Microsoft में अंशकालिक रूप से कार्य करेंगे और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन में पूर्णकालिक रूप से कार्य करेंगे |
वर्ष 2008 में गेट्स ने Microsoft के दैनिक परिचालन प्रबंधन कार्य से पूर्णतया विदा ले ली परन्तु अध्यक्ष और सलाहकार के रूप में वह Microsoft में विद्यमान रहे |
आइये अब हम आपको बिल गेट्स की कुछ महत्वपूर्ण बातों से अवगत कराते हैं ;
Bill Gates Business Quotes in Hindiनरेंद्र मोदी हमारे देश के वर्तमान प्रधानमंत्री हैं। 2014 के चुनावों में उन्होंने भाजपा (B.J.P) को पूर्ण बहुमत से जितवाया। आज मोदी जी ने अपने व्यक्तित्व से बच्चे बच्चे में देश के प्रति कुछ कर गुज़रने की भावना उत्पन्न की है। Narendra Modi का जीवन बहुत ही साधारण तरीके से शुरू हुआ मगर अपनी मेहनत से उन्होंने असाधारण सफलता हासिल की। आज इस लेख (Article) में हम मोदी के चाय बेचने वाले दिनों से प्रधानमंत्री बनने तक के अद्भुत सफर (Amazing Journey and History of Narendra Modi) के बारे में जानेंगे। History of Narendra Modi in Hindi
भारत की आज़ादी के तीन वर्ष बाद गुजरात (Gujarat) के एक छोटे से कस्बे, वड़नगर (Vadnagar) में नरेंद्र मोदी का जन्म हुआ। दामोदर दास मोदी और हीरा बा की 6 संतानों में से मोदी उनकी तीसरी संतान थे। उनका परिवार बहुत ग़रीब था और एक कच्चे मकान में रहता था। दो वक्त की रोटी भी बड़ी मुश्किल से मिलती थी। नरेंद्र मोदी की माँ आस पड़ोस में बर्तन साफ करती थी ताकि अपने बच्चों का पालन पोषण कर सके। उनके पिता रेलवे स्टेशन पर चाय की एक छोटी सी दुकान (Tea Stall on Railway Station) चलाते थे। मोदी बचपन में अपने पिता की चाय की दुकान में उनका हाथ बटाते थे और रेल के डिब्बों में चाय बेचते थे। इन संघर्ष भरे दिनों का मोदी पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।
चाय की दुकान संभालने के साथ साथ मोदी पढ़ाई लिखाई का भी पूरा ध्यान रखते थे। मोदी को पढ़ने का बहुत शौक था। वे अक्सर अपने स्कूल के पुस्तकालय में घंटों बिता दिया करते थे। उनके सहपाठी (Classmate) और शिक्षक बताते हैं कि मोदी शुरू से ही एक कुशल वक्ता (Excellent speaker) थे और उनमें नेतृत्व करने की अद्भुत क्षमता थी। वे नाटकों और भाषणों में जमकर हिस्सा लेते थे। नरेंद्र को खेलों में भी बहुत दिलचस्पी थी। मोदी हिन्दू और मुस्लिम दोनों के त्यौहार बराबर उत्साह से मनाते थे। मोदी बचपन से ही बहुत बहादुर (Brave) थे। एक बार वे एक मगर के बच्चे को हाथ में उठाकर घर ले आए थे। ऐसे थे हमारे छोटे नरेंद्र।
जो निरंतर चलते रहते हैं वही बदले में मीठा फल पाते हैं। सूरज की अटलता को देखो – गतिशील और लगातार चलने वाला, कभी ठहरता नहीं, इसलिए बढ़ते चलो – Narendra Modi Narendra Modi Childhood Photo
बचपन से ही मोदी में देश भक्ति (Patriotism) कूट कूट कर भरी थी। 1962 में भारत चीन युद्ध के दौरान मोदी रेलवे स्टेशन पर जवानों से भरी ट्रेन में उनके लिए खाना और चाय लेकर जाते थे। 1965 में भारत पाक युद्ध के दौरान भी मोदी ने जवानों की खूब सेवा की। युवावस्था में मोदी पर स्वामी विवेकानंद का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने स्वामी जी के कार्यों का गहराई से अध्ययन किया जिसने उन्हें जीवन के रहस्यों की खोज की तरफ आकर्षित किया और उनमें त्याग और देश भक्ति (Patriotism) की भावनाओं को नई उड़ान दी। उन्होंने स्वामी जी के भारत को विश्व गुरु बनाने के सपने को साकार करना अपने जीवन का मकसद बना लिया।
17 साल की उम्र में मोदी ने घर छोड़ दिया और अपनी आध्यात्मिक यात्रा (Spiritual journey) शुरू की। उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों का भ्रमण किया। उन्होंने हिमालय में ऋषीकेश, बंगाल में रामकृष्ण आश्रम और पूर्वोत्तर भारत की यात्रा की और फिर दो वर्ष बाद वे घर लौट आए। इन यात्राओं से उन्हें स्वामी विवेकानंद को और गहराई से जानने का सौभाग्य मिला जिसने उन्हें पूरी तरह बदल दिया। जब वे घर लौटे, उनका मकसद साफ था- राष्ट्र की सेवा (Serving the Nation)। वे केवल दो सप्ताह ही घर पर रुके और फिर अहमदाबाद (Ahmedabad) के लिए निकल पड़े। वहाँ जाकर वे आर.एस.एस. (R.S.S.) के सदस्य बन गए। आर.एस.एस. (R.S.S.) एक ऐसा संगठन है जो देश के सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक विकास के लिए कार्य करता है।
Narendra Modi Young Picture
1972 में मोदी आर.एस.एस. (R.S.S.) के प्रचारक बन गए और अपना सारा समय आर.एस.एस. (R.S.S.) को देने लगे। वे सुबह पाँच बजे उठ जाते और देर रात तक काम करते। इस व्यस्त दिनचर्या के बावजूद उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की और राजनीति विज्ञान में डिग्री हासिल की (Degree in political science)। प्रचारक होने के नाते मोदी ने गुजरात के विभिन्न हिस्सों का भ्रमण किया और लोगों की समस्याओं को करीब से समझा। 1975 में देश में जब आपातकाल (Emergency) के काले बादल छाए थे, तब आर.एस.एस. (R.S.S.) जैसी संस्थाओं पर प्रतिबंध लग गया था। फिर भी मोदी भेष बदलकर देश की सेवा करते रहे और सरकार की गलत नीतियों का जमकर विरोध किया। आर.एस.एस. (R.S.S.) में बेहतरीन काम की बदौलत उन्हें भाजपा (B.J.P.) में नियुक्त किया गया। Narendra Modi ने 1990 में आडवाणी की अयोध्या रथ यात्रा का भव्य आयोजन किया जिससे भाजपा (B.J.P.) के वरिष्ठ नेता काफी प्रभावित हुए। उनके अद्भुत कार्य की बदौलत भाजपा (B.J.P.) में उनका कद बढ़ता रहा।
2001 में Gujarat में भयानक भूकंप (Earthquake) आया और पूरे Gujarat में भारी विनाश हुआ। गुजरात सरकार के राहत कार्य से ना खुश होकर भाजपा (BJP) के वरिष्ठ नेताओं ने Narendra Modi को गुजरात का मुख्यमंत्री (Chief Minister of Guajart) बना दिया। मोदी ने काफी कुशलता से राहत कार्य संभाला और गुजरात को फिर से मज़बूत किया। मोदी ने गुजरात को भारत का सबसे बेहतरीन राज्य बना दिया। उन्होंने गाँव गाँव तक बिजली (Electricity) पहुँचाई। देश में पहली बार किसी राज्य की सभी नदियों को जोड़ा गया जिससे पूरे राज्य में पानी की कमी दूर हुई। एशिया के सबसे बड़े सोलर पार्क (Asia’s Largest Solar Park) का निर्माण Gujarat में हुआ। गुजरात के सभी गाँवों को इंटरनेट से जोड़ा गया और टूरिज़्म को भी बढ़ावा दिया गया (Tourism has also Promoted)। Modi के कार्यकाल में Gujarat में बेरोज़गारी काफी कम हुई (Unemployment Decreased) और महिलाओं की सुरक्षा में काफी मज़बूती आई। इन्ही कारणों की वजह से गुजरात की जनता ने मोदी को चार बार लगातार अपना मुख्यमंत्री (C.M.) नियुक्त किया।
Gujarat में Modi की सफलता देखकर भाजपा (B.J.P.) के बड़े नेताओं ने Modi को 2014 लोक सभा चुनावों का प्रधानमंत्री उम्मीदवार (Prime Minister Candidate) घोषित किया। मोदी ने पूरे भारत में अनेक रैलियाँ की जिनमें हज़ारों लोग उन्हें सुनने आते थे। मोदी ने सोशल मीडिया (Social Media) का भी भरपूर लाभ उठाया और लाखों लोगों तक अपनी बात रखी। मोदी के गुजरात में विकासशील कार्य, उनके प्रेरणादायक भाषण (Inspirational Speech), देश के प्रति उनका प्यार, उनकी साधारण शुरुआत और उनकी सकारात्मक सोच (Positive thinking) के कारण उन्हें भारी मात्रा में वोट मिले और वे भारत के पंद्रहवे प्रधानमंत्री बने (India ‘s Fifteenth Prime Minister)।
प्रधानमंत्री (P.M.) बनने के बाद वे भारत का कुशलता से नेतृत्व कर रहे हैं और भारत को नई उचाईओं पर पहुँचा रहे हैं। उन्होंने कई विदेश यात्राएँ की और भारत की छवि संपूर्ण विश्व में मज़बूत की। इसी कारण विदेशों द्वारा भारत में काफी निवेश हुआ। मोदी ने पड़ोसी देशों से भी काफी अच्छे संबंध बनाए। मोदी ने जन धन योजना (Jan Dhan Yojna), स्वच्छ भारत अभियान (Clean India Campaign), मेक इन इंडिया (Make in India) और डिजिटल इंडिया (Digital India) जैसी कई योजनाओं की शुरुआत की जिससे India में काफी विकास (Development) हो रहा है ।
Narendra Modi बहुत ही मेहनती व्यक्ति हैं। वे 18 घंटे काम करते हैं और कुछ ही घंटे सोते हैं। वे शुद्ध शाकाहारी (Vegetarian) हैं और नवरात्रों के नौ दिन उपवास रखते हैं। मोदी अपनी सेहत का भरपूर ध्यान रखते हैं और प्रतिदिन योग (Yoga) करते हैं, भले ही वे कहीं भी हों। मोदी हमेशा साफ कपड़े पहनते हैं और लोग उन्हें फैशन आइकॉन के रूप में देखते हैं। नेता होने के अलावा मोदी एक कवि और लेखक भी हैं। वे अपने भाषणों से लाखों युवाओं का मनोबल बढ़ाते हैं और उनमें देश भक्ति की भावना जगाते हैं।
मोदी जी (Modi Biography) से हमें यह सीख मिलती है कि हमें हमेशा मेहनत करनी चाहिए और निस्वार्थ भाव से देश की सेवा करनी चाहिए। ये हमारे गणतंत्र की ताकत ही है जिसने एक चाय वाले को देश का प्रधानमंत्री (Prime Minister) बनने का अवसर दिया। उम्मीद है आप सभी को Narendra Modi के जीवन से प्रेरणा (Inspirational) मिलेगी और आप अपने सपने साकार करेंगे। मेरी आप सभी से यह विनती है कि हमें मोदी जी के भारत को विश्व गुरु बनाने के मिशन में उनका पूरा साथ देना चाहिए। धन्यवाद।
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केशव बलिराम हेडगेवार
डॉ॰केशव बलिराम हेडगेवार (मराठी: डॉ॰केशव बळीराम हेडगेवार; जन्म : 1 अप्रैल 1889 - मृत्यु : 21 जून 1940) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं प्रकाण्ड क्रान्तिकारी थे।[1] उनका जन्म हिन्दू वर्ष प्रतिपदा के दिन हुआ था।[2] घर से कलकत्ता गये तो थे डाक्टरी पढने परन्तु वापस आये उग्र क्रान्तिकारी बनकर। कलकत्ते में श्याम सुन्दर चक्रवर्ती के यहाँ रहते हुए बंगाल की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य बन गये। सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये। बाद में कांग्रेस से मोह भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर डाली। मृत्युपर्यन्त सन् १९४० तक वे इस संगठन के सर्वेसर्वा रहे।
संक्षिप्त जीवन परिचय
डॉ॰ हेडगेवार का जन्म १ अप्रैल, १८८९ को महाराष्ट्र के नागपुर जिले में पण्डित बलिराम पन्त हेडगेवार के घर हुआ था। इनकी माता का नाम रेवतीबाई था। माता-पिता ने पुत्र का नाम केशव रखा। केशव का बड़े लाड़-प्यार से लालन-पालन होता रहा। उनके दो बड़े भाई भी थे, जिनका नाम महादेव और सीताराम था। पिता बलिराम वेद-शास्त्र के विद्वान थे एवं वैदिक कर्मकाण्ड (पण्डिताई) से परिवार का भरण-पोषण चलाते थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी व आर्य समाज में निष्ठा होने के कारण उन्होंने अग्निहोत्र का व्रत लिया हुआ था। परिवार में नित्य वैदिक रीति से सन्ध्या-हवन होता था।
बडे भाई से प्रेरणा
केशव के सबसे बड़े भाई महादेव भी शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता तो थे ही मल्ल-युद्ध की कला में भी बहुत माहिर थे। वे रोज अखाड़े में जाकर स्वयं तो व्यायाम करते ही थे गली-मुहल्ले के बच्चों को एकत्र करके उन्हें भी कुश्ती के दाँव-पेंच सिखलाते थे। महादेव भारतीय संस्कृति और विचारों का बड़ी सख्ती से पालन करते थे। केशव के मानस-पटल पर बडे भाई महादेव के विचारों का गहरा प्रभाव था। किन्तु वे बडे भाई की अपेक्षा बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी विचारों के थे। जिसका परिणाम यह हुआ कि वे डॉक्टरी पढ़ने के लिये कलकत्ता गये और वहाँ से उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से प्रथम श्रेणी में डॉक्टरी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की; परन्तु घर वालों की इच्छा के विरुद्ध देश-सेवा के लिए नौकरी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। डॉक्टरी करते करते ही उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को भांप कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया l[2]
क्रान्ति का बीजारोपण
कलकत्ते में पढाई करते हुए उनका मेल-मिलाप बंगाल के क्रान्तिकारियों से हुआ। केशव चूँकि कलकत्ता में अपने बडे भाई महादेव के मित्र श्याम सुन्दर चक्रवर्ती[3] के घर रहते थे अत: वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें केशव चक्रवर्ती के नाम से ही जानते व सम्बोधित करते थे। उनकी असाधारण योग्यता को मद्देनजर रखते हुए उन्हें पहले अनुशीलन समिति का साधारण सदस्य बनाया गया। उसके बाद जब वे कार्यकुशलता की कसौटी पर खरे उतरे तो उन्हें समिति का अन्तरंग सदस्य भी बना लिया गया। उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को देख कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष भी बनाया गया l इस प्रकार क्रान्तिकारियों की समस्त गतिविधियों का ज्ञान और संगठन-तन्त्र कलकत्ते से सीखकर वे नागपुर लौटे।[1]
कांग्रेस और हिन्दू महासभा में भागीदारी
सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये। बाद में आपका कांग्रेस से मोह भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर डाली।
लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद केशव कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे। गांधीजी के अहिंसक असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलनों में भाग लिया, परन्तु ख़िलाफ़त आंदोलन की जमकर आलोचना की। ये गिरफ्तार भी हुए और सन् १९२२ में जेल से छूटे। नागपुर में १९२३ के दंगों के दौरान इन्होंने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया। अगले साल सावरकर के पत्र हिन्दुत्व का संस्करण निकला जिसमें इनका योगदान भी था। इसकी मूल पांडुलिपि इन्हीं के पास थी[4]।
व्यक्तित्व व कृतित्व१९२२ ई. में भारत के राजनीतिक पटल पर गांधी के आने के पश्चात ही मुस्लिम सांप्रदायिकता ने अपना सिर उठाना प्रारंभ कर दिया। खिलाफत आंदोलन को गांधी जी का सहयोग प्राप्त था - तत्पश्चात नागपुर व अन्य कई स्थानों पर हिन्दू, मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गये तथा नागपुर के कुछ हिन्दू नेताओं ने समझ लिया कि हिन्दू एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है। ऐसी स्थिति में कई हिंदू नेता केरल की स्थिती जानने एवं वहां के लूटे पिटे हिंदुओं की सहायता के लिए मालाबार-केरल गये, इनमें नागपुर के प्रमुख हिंदू महासभाई नेता डॉ॰ बालकृष्ण शिवराम मुंजे, डॉ॰ हेडगेवार, आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी आदि थे, उसके थोड़े समय बाद नागपुर तथा अन्य कई शहरों में भी हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए l ऐसी घटनाओं से विचलित होकर नागपुर में डॉ॰ मुंजे ने कुछ प्रसिद्ध हिंदू नेताओं की बैठक बुलाई, जिनमें डॉ॰ हेडगेवार एवं डॉ॰ परांजपे भी थे, इस बैठक में उन्होंने एक हिंदू-मिलीशिया बनाने का निर्णय लिया, उद्देश्य था “हिंदुओं की रक्षा करना एवं हिन्दुस्थान को एक सशक्त हिंदू राष्ट्र बनाना”l इस मिलीशिया को खड़े करने की जिम्मेवारी धर्मवीर डॉ॰ मुंजे ने डॉ॰ केशव बलीराम हेडगेवार को दी l१९२१ ई. में अंग्रेजो ने तुर्की को परास्त कर, वहां के सुल्तान को गद्दी से उतार दिया था, वही सुल्तान मुसलमानों के खलीफा/मुखिया भी कहलाते थे, ये बात भारत व अन्य मुस्लिम देशों के मुसलमानों को नागवार गुजरी जिससे जगह-जगह आन्दोलन हुए l हिन्दुस्थान में खासकर केरल के मालाबार जिले में आन्दोलन ने उग्र रूप ले लिया l
डॉ॰साहब ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यक्ति की क्षमताओं को उभारने के लिये नये-नये तौर-तरीके विकसित किये। हालांकि प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की असफल क्रान्ति और तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक अर्ध-सैनिक संगठन की नींव रखी। इस प्रकार 28/9/1925 (विजयदशमी दिवस) को अपने पिता-तुल्य गुरु डॉ॰ बालकृष्ण शिवराम मुंजे, उनके शिष्य डॉ॰ हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की नींव डाली, जिसका नाम कालांतर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ दिया गया l
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि इस मिलीशिया का आधार बना - वीर सावरकर का राष्ट्र दर्शन ग्रन्थ (हिंदुत्व) जिसमे हिंदू की परिभाषा यह की गई थी- आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका l पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव सा वै हिंदू रीती स्मृता ll
इस श्लोक के अनुसार “भारत के वह सभी लोग हिंदू हैं जो इस देश को पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं”l इनमे सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्ध, सिख आदि पंथों एवं धर्म विचार को मानने वाले व उनका आचरण करने वाले समस्त जन को हिंदू के व्यापक दायरे में रखा गया था l मुसलमान व ईसाई इस परिभाषा में नहीं आते थे अतः उनको इस मिलीशिया में ना लेने का निर्णय लिया गया और केवल हिंदुओं को ही लिया जाना तय हुआ, मुख्य मन्त्र था “अस्पष्टता निवारण एवं हिंदुओं का सैनिकी कारण”l
ऐसी मिलीशिया को खड़ा करने के लिए स्वंयसेवको की भर्ती की जाने लगी, सुबह व शाम एक-एक घंटे की शाखायें लगाई जाने लगी| इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए शिक्षक, मुख्य शिक्षक, घटनायक आदि पदों का सृजन किया गया l इन शाखाओं में व्यायाम, शारीरिक श्रम, हिंदू राष्ट्रवाद की शिक्षा के साथ- साथ वरिष्ठ स्वंयसेवकों को सैनिक शिक्षा भी दी जानी तय हुई l बाद में यदा कदा रात के समय स्वंयसेवकों की गोष्ठीयां भी होती थी, जिनमें महराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, वीर सावरकर, मंगल पांडे, तांत्या टोपे आदि की जीवनियाँ भी पढ़ी जाती थीं l वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक (हिंदुत्व) के अंश भी पढ़ कर सुनाये जाते थे l
थोड़े समय बाद इस मिलीशिया को नाम दिया गया राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ- जो आर.एस.एस. के नाम से प्रसिद्ध हुआ l प्रार्थना भी मराठी की बजाय संस्कृत भाषा में होने लगी l वरिष्ठ स्वंयसेवकों के लिए ओ.टी.सी. कैम्प लगाये जाने लगे, जहाँ उन्हें अर्धसैनिक शिक्षा भी दी जाने लगी l इन सब कार्यों के लिए एक अवकाश प्राप्त सैनिक अधिकारी श्री मारतंडे राव जोग की सेवाएं ली गईं l सन् १९३५-३६ तक ऐसी शाखाएं केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित थी और इसके स्वंयसेवकों की संख्या कुछ हज़ार तक ही थी, पर सरसंघचालक और स्वंयसेवकों का उत्साह देखने लायक था l स्वयं डॉ॰ हेडगेवार इतने उत्साहित थे कि अपने एक उदबोधन में उन्होंने कहा की:-
“संघ के जन्मकाल के समय की परिस्थिति बड़ी विचित्र सी थी, हिंदुओं का हिन्दुस्थान कहना उस समय निरा पागलपन समझा जाता था और किसी संगठन को हिंदू संगठन कहना देश द्रोह तक घोषित कर दिया जाता था” l (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तत्व और व्यवहार पृष्ठ ६४)
डॉ॰ हेडगेवार ने जिस दुखद स्थिति को व्यक्त किया, उसमें नवसर्जित राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और हिंदू महासभा के नेतृत्व के प्रयास से- हिंदू युवाओं में साहस के साथ यह नारा गूंजने लगा “हिन्दुस्थान हिंदुओं का- नहीं किसी के बाप का” इस कथन की विवेचना डॉ॰ हेडगेवार ने इन शब्दों में की:-
“कई सज्जन यह कहते हुए भी नहीं हिचकिचाते की हिन्दुस्थान केवल हिन्दुओ का ही कैसे? यह तो उन सभी लोगों का है जो यहाँ बसते हैं l खेद है की इस प्रकार का कथन/आक्षेप करने वाले सज्जनों को राष्ट्र शब्द का अर्थ ही ज्ञात नहीं l केवल भूमि के किसी टुकड़े को राष्ट्र नहीं कहते l एक विचार-एक आचार-एक सभ्यता एवं परम्परा में जो लोग पुरातन काल से रहते चले आए हैं उन्हीं लोगों की संस्कृति से राष्ट्र बनता है l इस देश को हमारे ही कारण हिन्दुस्थान नाम दिया गया है l दूसरे लोग यदि समोपचार से इस देश में बसना चाहते हैं तो अवश्य बस सकते हैं l हमने उन्हें न कभी मना किया है न करेंगे l किंतु जो हमारे घर अतिथि बन कर आते हैं और हमारे ही गले पर छुरी फेरने पर उतारू हो जाते हैं उनके लिए यहाँ रत्ती भर भी स्थान नहीं मिलेगा l संघ की इस विचारधारा को पहले आप ठीक ठाक समझ लीजिए l” (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पृष्ठ १४)
एक अन्य अवसर पर डॉ॰ हेडगेवार ने कहा था “संघ तो केवल, हिन्दुस्थान हिंदुओं का- इस ध्येय वाक्य को सच्चा कर दिखाना चाहता है l” दूसरे देशों के सामान, “यह हिंदुओं का होने के कारण”- इस देश में हिंदू जो कहेंगे वही पूर्व दिशा होगी (अर्थात वही सही माना जाएगा) l यही एक बात है जो संघ जानता है, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के लिए किसी भी अन्य पचड़े में पड़ने की आवश्कता नहीं है l”(तदैव पृष्ठ ३८)
जब वीर सावरकर रत्नागिरी में दृष्टि बंद (नजरबंद) थे, तब डॉ॰ हेडगेवार वहां उनसे मिलने गये। तब तक वह वीर सावरकर रचित पुस्तक हिन्दुत्व भी पढ़ चुके थे। डॉ॰ हेडगेवार उस पुस्तक के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उसकी सराहना करते हुए बोले कि “वीर सावरकर एक आदर्श व्यक्ति है”।
दोनों (सावरकर एवं हेडगेवार) का विश्वास था कि जब तक हिन्दू अंध विश्वास, पुरानी रूढ़िवादी सोच, धार्मिक आडम्बरों को नहीं छोडेंगे तब तक हिन्दू-जातीवाद, छूत-अछूत, शहरी-बनवासी और छेत्रवाद इत्यादि में बंटा रहेगा और जब तक वह संगठित एवं एक जुट नही होगा, तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नही ले सकेगा।
सन् 1937 में वीर सावरकर की दृष्टिबंदी (नजरबंदी) समाप्त हो गयी और उसके बाद वे राजनीति में भाग ले सकते थे। उसी वर्ष वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये जिसके उपाध्यक्ष डॉ॰ हेडगेवार थे। 1937 में हिन्दू महासभा का अधिवेशन कर्णावती (अहमदाबाद) में हुआ। इस अधिवेशन में वीर सावरकर के अध्यक्षीय भाषण को “हिन्दू राष्ट्र दर्शन” के नाम से जाना जाता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डॉ॰ मुंजे एवं डॉ॰ हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l
इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।
दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डॉ॰ गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।
वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगाँवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l
इस तरह डॉ॰ हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।
1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ॰ हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।
हैदराबाद (दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।
आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये| निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयंसेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डॉ॰ हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।
धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान हेतु संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा, अब ये पुराने तरीके काम नहीं आएंगे।[2] डॉ॰साहब १९२५ से १९४० तक, यानि मृत्यु पर्यन्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे। २१ जून,१९४० को इनका नागपुर में निधन हुआ। इनकी समाधि रेशम बाग नागपुर में स्थित है, जहाँ इनका अंत्येष्टि संस्कार हुआ था।
संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
माधव सदाशिव गोलवलकर
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी (मराठी: माधव सदाशिव गोळवलकर ; जन्म: १९ फ़रवरी १९०६ - मृत्यु: ५ जून १९७३) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक तथा महान विचारक थे। उन्हें जनसाधारण प्राय: 'गुरूजी' के ही नाम से अधिक जानते हैं।
संक्षिप्त जीवन वृत्त
श्री गुरूजी का जन्म माघ कृष्ण 11 संवत् 1963 तदनुसार 19 फ़रवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। वे अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनके पिता का नाम श्री सदाशिव राव उपाख्य 'भाऊ जी' तथा माता का श्रीमती लक्ष्मीबाई उपाख्य 'ताई' था। उनका बचपन में नाम माधव रखा गया पर परिवार में वे मधु के नाम से ही पुकारे जाते थे। पिताश्री सदाशिव राव प्रारम्भ में डाक-तार विभाग में कार्यरत थे परन्तु बाद में सन् 1908 में उनकी नियुक्ति शिक्षा विभाग में अध्यापक पद पर हो गयी।
शिक्षा के साथ अन्य अभिरुचियाँ[संपादित करें]
मधु जब मात्र दो वर्ष के थे तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। पिताश्री भाऊजी जो भी उन्हें पढ़ाते थे उसे वे सहज ही इसे कंठस्थ कर लेते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुध्दि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही विकसित हो रहा था। सन् 1919 में उन्होंने 'हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा' में विशेष योग्यता दिखाकर छात्रवृत्ति प्राप्त की। सन् 1922 में 16 वर्ष की आयु में माधव ने मैट्रिक की परीक्षा चाँदा (अब चन्द्रपुर) के 'जुबली हाई स्कूल' से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् सन् 1924 में उन्होंने नागपुर के ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित 'हिस्लाप कॉलेज' से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। अंग्रेजी विषय में उन्हें प्रथम पारितोषिक मिला। वे भरपूर हाकी तो खेलते ही थे कभी-कभी टेनिस भी खेल लिया करते थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम का भी उन्हें शौक था। मलखम्ब के करतब, पकड़ एवं कूद आदि में वे काफी निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाँसुरी एवं सितार वादन में भी अच्छी प्रवीणता हासिल कर ली थी।
विश्वविद्यालय में ही आध्यात्मिक रुझान
इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माधवराव के जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सन् 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ। सन् 1926 में उन्होंने बी.एससी. और सन् 1928 में एम.एससी. की परीक्षायें भी प्राणि-शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण कीं। इस तरह उनका विद्यार्थी जीवन अत्यन्त यशस्वी रहा। विश्वविद्यालय में बिताये चार वर्षों के कालखण्ड में उन्होंने विषय के अध्ययन के अलावा "संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक 'विचार सम्पदा', भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन किया"[1]। इसी बीच उनकी रुचि आध्यात्मिक जीवन की ओर जागृत हुई। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में 'मत्स्य जीवन' पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये। एक वर्ष के दौरान ही उनके पिता श्री भाऊजी सेवानिवृत्त हो गये, जिसके कारण वह श्री गुरूजी को पैसा भेजने में असमर्थ हो गये। इसी मद्रास-प्रवास के दौरान वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये। चिकित्सक का विचार था कि यदि सावधानी नहीं बरती तो रोग गम्भीर रूप धारण कर सकता है। दो माह के इलाज के बाद वे रोगमुक्त तो हुए परन्तु उनका स्वास्थ्य पूर्णरूपेण से पूर्ववत् नहीं रहा। मद्रास प्रवास के दौरान जब वे शोध में कार्यरत थे तो एक बार हैदराबाद का निजाम मत्स्यालय देखने आया। नियमानुसार प्रवेश-शुल्क दिये बिना उसे प्रवेश देने से श्री गुरूजी ने इन्कार कर दिया[2]। आर्थिक तंगी के कारण श्री गुरूजी को अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर वापस लौटना पड़ा।उनमे अद्भुत क्षमता थी लोगो को अपनी ओर आकर्षित करने की।
प्राध्यापक के रूप में श्रीगुरूजी
नागपुर आकर भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसके साथ ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त खराब हो गयी थी। इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निदर्शक पद पर सेवा करने का प्रस्ताव मिला। 16 अगस्त सन् 1931 को श्री गुरूजी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निदर्शक का पद संभाल लिया। चूँकि यह अस्थायी नियुक्ति थी। इस कारण वे प्राय: चिन्तित भी रहा करते थे।
अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक अत्यन्त लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे। इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये। माधव राव यद्यपि विज्ञान के परास्नातक थे, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय भी पढ़ाने को सदैव तत्पर रहते थे (भिशीकर, वही, पृष्ठ 17)। यदि उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकें नहीं मिलती थीं, तो वे उन्हें खरीद कर और पढ़कर जिज्ञासी छात्रों एवं मित्रों की सहायता करते रहते थे। उनके वेतन का बहुतांश अपने होनहार छात्र-मित्रों की फीस भर देने अथवा उनकी पुस्तकें खरीद देने में ही व्यय हो जाया करता था।
संघ प्रवेश
सबसे पहले ""डॉ॰ हेडगेवार"" के द्वारा काशी विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के द्वारा श्री गुरूजी संघ के सम्पर्क में आये और उस शाखा के संघचालक भी बने। 1937 में वो नागपुर वापस आ गए। नागपुर में श्री गुरूजी के जीवन में एक दम नए मोड़ का आरम्भ हो गया। ""डॉ हेडगेवार"" के सानिध्य में उन्होंने एक अत्यंत प्रेरणा दायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। किसी आप्त व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर उन्होंने कहा- "मेरा रुझान राष्ट्र संगठन कार्य की और प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूँगा ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानंद के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।" 1938 के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होंने अपना जीवन कार्य मान लिया। डॉ हेडगेवार के साथ निरंतर रहते हुवे अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित किया।इससे डॉ हेडगेवार जी का ध्येय पूर्ण हुआ।
द्वितीय संघचालक हेतु नियुक्ति
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक ""डॉ हेडगेवार"" के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्म संयम होने की वजह से 1939 में माधव सदाशिव गोलवलकर को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में ""हेडगेवार"" का ज्वर बढ़ता ही गया और अपना अंत समय जानकर उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने माधव को अपने पास बुलाया और कहा ""अब आप ही संघ का कार्य सम्भालें""। 21 जून 1940 को हेडगेवार अनंत में विलीन हो गए।
भारत छोड़ो- श्री गुरूजी का दृष्टिकोण
9 अगस्त 1942 को बिना शक्ति के ही कोंग्रेस ने अंग्रेजों के खिलाफ ""भारत छोड़ो"" आंदोलन छेड़ दिया।देश भर में बड़ा आंदोलन शुरू तो हो गया,परन्तु असंगठित दिशाहीन होने से जनता की तरफ से कई प्रकार की तोड़ फोड़ होने लगी। सत्ताधारियों ने बड़ी क्रूरता से दमन नीतियाँ अपनाई। 2-3 महीने होते-होते आंदोलन की चिंगारी शांत हो गई। देश के सभी नेता कारागार में थे और उनकी रिहाई की कोई आशा दिखाई नहीं दे रही थी। श्री गुरूजी ने निर्णय किया था की संघ प्रत्यक्ष रूप से तो आंदोलन में भाग नहीं लेगा किन्तु स्वयंसेवकों को व्यक्तिशः प्रेरित किया जाएगा।
विभाजन संकट में अद्वितीय नेतृत्व
16 अगस्त 1946 को मुहम्मद अली जिन्नाह ने सीधी कार्यवाही का दिन घोषित कर के हिन्दू हत्या का तांडव मचा दिया। उन्ही दिनोँ में श्री गुरूजी देश भर के अपने प्रत्येक भाषण में देश विभाजन के खिलाफ डट कर खड़े होने के लिए जनता का आह्वान करते रहे किन्तु कांग्रेसी नेतागण अखण्ड भारत के लिए लड़ने की मनः स्थिति में नहीं थे। पण्डित नेहरू ने भी स्पष्ट शब्दों में विभाजन को स्वीकार कर लिया था और 3 जून 1947 को इसकी घोषणा कर दी गई। एकाएक देश की स्थिति बदल गई। इस कठिन समय में स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान वाले भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजना शुरू किया। संघ का आदेश था की जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित ना आ जाए तब तक डटे रहना है । भीषण दिनों में स्वयंसेवकों का अतुलनीय पराक्रम, रणकुशलता, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखने लायक है। श्री गुरूजी भी इस कठिन घडी में पाकिस्तान के भाग में प्रवास करते रहे।
संघ पर प्रतिबन्ध
30 जनवरी 1948 को गांधी हत्या के मिथ्या आरोप में 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। श्री गुरूजी को गिरफ्तार किया गया।देश भर में स्वयंसेवको की गिरफ्तारियां हुई। जेल में रहते हुवे उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का विस्तृत व्यक्तव्य भेजा जिसमे सरकार को मुहतोड़ जवाब दिया गया था। आह्वान किया गया की संघ पर आरोप सिद्ध करो या प्रतिबन्ध हटाओ। देश भर में यह स्वर गूंज उठा था। 26 फरवरी 1948 को देश के प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल ने अपने पत्र में लिखा था ""गांधी हत्या के काण्ड में मैंने स्वयं अपना ध्यान लगाकर पूरी जानकारी प्राप्त की है। उस से जुड़े हुवे सभी अपराधी लोग पकड़ में आ गए हैं। उनमें एक भी व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नहीं है।""
9 दिसम्बर 1948 को सत्याग्रह नाम के इस आंदोलन की शुरुआत होते ही कुछ 4-5 हज़ार बच्चों का यह आंदोलन है ऐसा मानकर नेतागण ने इसका मजाक उड़ाया। लेकिन उसके उलट किसी भी कांग्रेसी आंदोलन में इतनी संख्या नहीं थी । 77090 स्वयंसेवकों ने विभिन्न जेलों को भर दिया। आख़िरकार संघ को लिखित संविधान बनाने का आदेश दे कर प्रतिबन्ध हटा लिया गया और अब गांधी हत्या का इसमें जिक्र तक नहीं हुआ।
तब सरदार वल्लभभाई पटेल ने गुरूजी को भेजे हुवे अपने सन्देश में लिखा की ""संघ पर से पाबन्दी उठाने पर मुझे जितनी ख़ुशी हुई इसका प्रमाण तो उस समय जो लोग मेरे निकट थे वे ही बता सकते हैं... मैं आपको अपनी शुभकामनाएं भेजता हूँ।""
चीन आक्रमण के दौरान श्री गुरूजी का मार्गदर्शन
श्री गुरूजी ने चीनी आक्रमण शुरू होते ही जो मार्ग दर्शन दिया उसके परिप्रेक्ष्य में स्वयंसेवक युद्ध प्रयत्नों में जनता का समर्थन जुटाने तथा उनका मनोबल दृढ करने में जुट गए। उनके सामयिक सहयोग का महत्व पण्डित नेहरू को भी स्वीकार करना पड़ा और उन्होंने सन् 1963 में गणतंत्र दिवस के पथ संचलन में कुछ कांग्रेसियों की आपत्ति के बाद भी संघ के स्वयंसेवकों को भाग लेने हेतु आमंत्रण भिजवाया। कहना न होगा की संघ के तीन हज़ार गणवेषधारी स्वयंसेवकों का घोष की ताल पर कदम मिलाकर चलना उस दिन के कार्यक्रम का एक प्रमुख आकर्षण था।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
महात्मा गांधीमहात्मा गांधी
मोहनदास करमचन्द गांधी (2 अक्टूबर 1869 - 30 जनवरी 1948) भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया[1]। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गान्धी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं।[2] प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।
सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु रोजगार करना शुरू किया। 1915 में उनकी भारत वापसी हुई। उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।
गान्धी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रक्खे।
प्रारम्भिक जीवन
मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय शहर पोरबंदर नामक स्थान पर 2 अक्टूबर सन् 1869 को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी[3] जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है।[4] उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिन्होंने आगे चलकर उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में शामिल थे दुर्बलों में जोश की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता।
कम आयु में विवाह
मई 1883 में साढे 13 साल की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह 14 साल की कस्तूरबा माखनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। लेकिन उस क्षेत्र में यही रीति थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना पड़ता था। 1885 में जब गान्धी जी 15 वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया। लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी साल उनके पिता करमचन्द गन्धी भी चल बसे। मोहनदास और कस्तूरबा के चार सन्तान हुईं जो सभी पुत्र थे। हरीलाल गान्धी 1888 में, मणिलाल गान्धी 1892 में, रामदास गान्धी 1897 में और देवदास गांधी 1900 में जन्मे। पोरबंदर से उन्होंने मिडिल और राजकोट से हाई स्कूल किया। दोनों परीक्षाओं में शैक्षणिक स्तर वह एक औसत छात्र रहे। मैट्रिक के बाद की परीक्षा उन्होंने भावनगर के शामलदास कॉलेज से कुछ परेशानी के साथ उत्तीर्ण की। जब तक वे वहाँ रहे अप्रसन्न ही रहे क्योंकि उनका परिवार उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहता था।
विदेश में शिक्षा व विदेश में ही वकालत
अपने 19वें जन्मदिन से लगभग एक महीने पहले ही 4 सितम्बर 1888 को गान्धी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। भारत छोड़ते समय जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष हिन्दुओं को मांस, शराब तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने के लिए अपनी अपनी माता जी को दिए गये एक वचन ने उनके शाही राजधानी लंदन में बिताये गये समय को काफी प्रभावित किया। हालांकि गांधी जी ने अंग्रेजी रीति रिवाजों का अनुभव भी किया जैसे उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में जाने आदि का। फिर भी वह अपनी मकान मालकिन द्वारा मांस एवं पत्ता गोभी को हजम.नहीं कर सके। उन्होंने कुछ शाकाहारी भोजनालयों की ओर इशारा किया। अपनी माता की इच्छाओं के बारे में जो कुछ उन्होंने पढा था उसे सीधे अपनाने की बजाय उन्होंने बौद्धिकता से शाकाहारी भोजन का अपना भोजन स्वीकार किया। उन्होंने शाकाहारी समाज की सदस्यता ग्रहण की और इसकी कार्यकारी समिति के लिये उनका चयन भी हो गया जहाँ उन्होंने एक स्थानीय अध्याय की नींव रखी। बाद में उन्होने संस्थाएँ गठित करने में महत्वपूर्ण अनुभव का परिचय देते हुए इसे श्रेय दिया। वे जिन शाकाहारी लोगों से मिले उनमें से कुछ थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य भी थे। इस सोसाइटी की स्थापना 1875 में विश्व बन्धुत्व को प्रबल करने के लिये की गयी थी और इसे बौद्ध धर्म एवं सनातन धर्म के साहित्य के अध्ययन के लिये समर्पित किया गया था।
उन्हों लोगों ने गान्धी जी को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिये प्रेरित किया। हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य धर्मों .के बारे में पढ़ने से पहले गांन्धी ने धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखायी। इंग्लैंड और वेल्स बार एसोसिएशन में वापस बुलावे पर वे भारत लौट आये किन्तु बम्बई में वकालत करने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में एक हाई स्कूल शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये जाने पर उन्होंने जरूरतमन्दों के लिये मुकदमे की अर्जियाँ लिखने के लिये राजकोट को ही अपना स्थायी मुकाम बना लिया। परन्तु एक अंग्रेज अधिकारी की मूर्खता के कारण उन्हें यह कारोबार भी छोड़ना पड़ा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस घटना का वर्णन अपने बड़े भाई की ओर से परोपकार की असफल कोशिश के रूप में किया है। यही वह कारण था जिस वजह से उन्होंने सन् 1893 में एक भारतीय फर्म से नेटाल दक्षिण अफ्रीका में, जो उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का भाग होता था, एक वर्ष के करार पर वकालत का कारोवार स्वीकार कर लिया।
दक्षिण अफ्रीका (१८९३-१९१४) में नागरिक अधिकारों के आन्दोलन
दक्षिण अफ्रीका में गान्धी को भारतीयों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। आरम्भ में उन्हें प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इन्कार करने के लिए ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। इतना ही नहीं पायदान पर शेष यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की मार भी झेलनी पड़ी। उन्होंने अपनी इस यात्रा में अन्य भी कई कठिनाइयों का सामना किया। अफ्रीका में कई होटलों को उनके लिए वर्जित कर दिया गया। इसी तरह ही बहुत सी घटनाओं में से एक यह भी थी जिसमें अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था जिसे उन्होंने नहीं माना। ये सारी घटनाएँ गान्धी के जीवन में एक मोड़ बन गईं और विद्यमान सामाजिक अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या करने में मददगार सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए गान्धी ने अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाये।
१९०६ के ज़ुलु युद्ध में भूमिका
१९०६ में, ज़ुलु (Zulu) दक्षिण अफ्रीका में नए चुनाव कर के लागू करने के बाद दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला गया। बदले में अंग्रेजों ने जूलू के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। गांधी जी ने भारतीयों को भर्ती करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को सक्रिय रूप से प्रेरित किया। उनका तर्क था अपनी नागरिकता के दावों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीयों को युद्ध प्रयासों में सहयोग देना चाहिए। तथापि, अंग्रेजों ने अपनी सेना में भारतीयों को पद देने से इंकार कर दिया था। इसके बावजूद उन्होने गांधी जी के इस प्रस्ताव को मान लिया कि भारतीय घायल अंग्रेज सैनिकों को उपचार के लिए स्टेचर पर लाने के लिए स्वैच्छा पूर्वक कार्य कर सकते हैं। इस कोर की बागडोर गांधी ने थामी।२१ जुलाई (July 21), १९०६ को गांधी जी ने भारतीय जनमत इंडियन ओपिनिय (Indian Opinion) में लिखा कि २३ भारतीय[5] निवासियों के विरूद्ध चलाए गए आप्रेशन के संबंध में प्रयोग द्वारा नेटाल सरकार के कहने पर एक कोर का गठन किया गया है।दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों से इंडियन ओपिनियन में अपने कॉलमों के माध्यम से इस युद्ध में शामिल होने के लिए आग्रह किया और कहा, यदि सरकार केवल यही महसूस करती हे कि आरक्षित बल बेकार हो रहे हैं तब वे इसका उपयोग करेंगे और असली लड़ाई के लिए भारतीयों का प्रशिक्षण देकर इसका अवसर देंगे।[6]
गांधी की राय में, १९०६ का मसौदा अध्यादेश भारतीयों की स्थिति में किसी निवासी के नीचे वाले स्तर के समान लाने जैसा था। इसलिए उन्होंने सत्याग्रह (Satyagraha), की तर्ज पर "काफिर (Kaffir)s " .का उदाहरण देते हुए भारतीयों से अध्यादेश का विरोध करने का आग्रह किया। उनके शब्दों में, " यहाँ तक कि आधी जातियां और काफिर जो हमसे कम आधुनिक हैं ने भी सरकार का विरोध किया है। पास का नियम उन पर भी लागू होता है किंतु वे पास[7] नहीं दिखाते हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष (१९१६ -१९४५)
१९१५ में, गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत में रहने के लिए लौट आएं। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों पर अपने विचार व्यक्त किए, लेकिन वे भारत के मुख्य मुद्दों, राजनीति तथा उस समय के कांग्रेस दल के प्रमुख भारतीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले (Gopal Krishna Gokhale), जो एक सम्मानित नेता थे पर ही आधारित थे। .
चंपारण और खेड़ा
गांधी की पहली बड़ी उपलब्धि १९१८ में चम्पारन (Champaran) और खेड़ा सत्याग्रह, आंदोलन में मिली हालांकि अपने निर्वाह के लिए जरूरी खाद्य फसलों की बजाए नील (indigo) नकद पैसा देने वाली खाद्य फसलों की खेती वाले आंदोलन भी महत्वपूर्ण रहे। जमींदारों (अधिकांश अंग्रेज) की ताकत से दमन हुए भारतीयों को नाममात्र भरपाई भत्ता दिया गया जिससे वे अत्यधिक गरीबी से घिर गए। गांवों को बुरी तरह गंदा और अस्वास्थ्यकर (unhygienic); और शराब, अस्पृश्यता और पर्दा से बांध दिया गया। अब एक विनाशकारी अकाल के कारण शाही कोष की भरपाई के लिए अंग्रेजों ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। यह स्थिति निराशजनक थी। खेड़ा (Kheda), गुजरात में भी यही समस्या थी। गांधी जी ने वहां एक आश्रम (ashram) बनाया जहाँ उनके बहुत सारे समर्थकों और नए स्वेच्छिक कार्यकर्ताओं को संगठित किया गया। उन्होंने गांवों का एक विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण किया जिसमें प्राणियों पर हुए अत्याचार के भयानक कांडों का लेखाजोखा रखा गया और इसमें लोगों की अनुत्पादकीय सामान्य अवस्था को भी शामिल किया गया था। ग्रामीणों में विश्वास पैदा करते हुए उन्होंने अपना कार्य गांवों की सफाई करने से आरंभ किया जिसके अंतर्गत स्कूल और अस्पताल बनाए गए और उपरोक्त वर्णित बहुत सी सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने के लिए ग्रामीण नेतृत्व प्रेरित किया।
लेकिन इसके प्रमुख प्रभाव उस समय देखने को मिले जब उन्हें अशांति फैलाने के लिए पुलिस ने गिरफ्तार किया और उन्हें प्रांत छोड़ने के लिए आदेश दिया गया। हजारों की तादाद में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए ओर जेल, पुलिस स्टेशन एवं अदालतों के बाहर रैलियां निकालकर गांधी जी को बिना शर्त रिहा करने की मांग की। गांधी जी ने जमींदारों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों को का नेतृत्व किया जिन्होंने अंग्रेजी सरकार के मार्गदर्शन में उस क्षेत्र के गरीब किसानों को अधिक क्षतिपूर्ति मंजूर करने तथा खेती पर नियंत्रण, राजस्व में बढोतरी को रद्द करना तथा इसे संग्रहित करने वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस संघर्ष के दौरान ही, गांधी जी को जनता ने बापू पिता और महात्मा (महान आत्मा) के नाम से संबोधित किया। खेड़ा में सरदार पटेल ने अंग्रेजों के साथ विचार विमर्श के लिए किसानों का नेतृत्व किया जिसमें अंग्रेजों ने राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप, गांधी की ख्याति देश भर में फैल गई।
असहयोग आन्दोलन
गांधी जी ने असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार को अंग्रेजों के खिलाफ़ शस्त्र के रूप में उपयोग किया। पंजाब में अंग्रेजी फोजों द्वारा भारतीयों पर जलियावांला नरसंहार जिसे अमृतसर नरसंहार के नाम से भी जाना जाता है ने देश को भारी आघात पहुंचाया जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी। गांधीजी ने ब्रिटिश राज तथा भारतीयों द्वारा प्रतिकारात्मक रवैया दोनों की की। उन्होंने ब्रिटिश नागरिकों तथा दंगों के शिकार लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की तथा पार्टी के आरंभिक विरोध के बाद दंगों की भंर्त्सना की। गांधी जी के भावनात्मक भाषण के बाद अपने सिद्धांत की वकालत की कि सभी हिंसा और बुराई को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है।[8] किंतु ऐसा इस नरसंहार और उसके बाद हुई हिंसा से गांधी जी ने अपना मन संपूर्ण सरकार आर भारतीय सरकार के कब्जे वाली संस्थाओं पर संपूर्ण नियंत्रण लाने पर केंद्रित था जो जल्दी ही स्वराज अथवा संपूर्ण व्यक्तिगत, आध्यात्मिक एवं राजनैतिक आजादी में बदलने वाला था।
दिसम्बर १९२१ में गांधी जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस.का कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को स्वराज.के नाम वाले एक नए उद्देश्य के साथ संगठित किया गया। पार्दी में सदस्यता सांकेतिक शुल्क का भुगताने पर सभी के लिए खुली थी। पार्टी को किसी एक कुलीन संगठन की न बनाकर इसे राष्ट्रीय जनता की पार्टी बनाने के लिए इसके अंदर अनुशासन में सुधार लाने के लिए एक पदसोपान समिति गठित की गई। गांधी जी ने अपने अहिंसात्मक मंच को स्वदेशी नीति — में शामिल करने के लिए विस्तार किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। इससे जुड़ने वाली उनकी वकालत का कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई खादी पहनें। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन[9] को सहयोग देने के लिएपुरूषों और महिलाओं को प्रतिदिन खादी के लिए सूत कातने में समय बिताने के लिए कहा। यह अनुशासन और समर्पण लाने की ऐसी नीति थी जिससे अनिच्छा और महत्वाकाक्षा को दूर किया जा सके और इनके स्थान पर उस समय महिलाओं को शामिल किया जाए जब ऐसे बहुत से विचार आने लगे कि इस प्रकार की गतिविधियां महिलाओं के लिए सम्मानजनक नहीं हैं। इसके अलावा गांधी जी ने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं तथा अदालतों का बहिष्कार और सरकारी नौकरियों को छोड़ने का तथा सरकार से प्राप्त तमगों और सम्मान (honours) को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया।
असहयोग को दूर-दूर से अपील और सफलता मिली जिससे समाज के सभी वर्गों की जनता में जोश और भागीदारी बढ गई। फिर जैसे ही यह आंदोलन अपने शीर्ष पर पहुंचा वैसे फरवरी १९२२ में इसका अंत चौरी-चोरा, उत्तरप्रदेश में भयानक द्वेष के रूप में अंत हुआ। आंदोलन द्वारा हिंसा का रूख अपनाने के डर को ध्यान में रखते हुए और इस पर विचार करते हुए कि इससे उसके सभी कार्यों पर पानी फिर जाएगा, गांधी जी ने व्यापक असहयोग[10] के इस आंदोलन को वापस ले लिया। गांधी पर गिरफ्तार किया गया १० मार्च, १९२२, को राजद्रोह के लिए गांधी जी पर मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाकर जैल भेद दिया गया। १८ मार्च, १९२२ से लेकर उन्होंने केवल २ साल ही जैल में बिताए थे कि उन्हें फरवरी १९२४ में आंतों के ऑपरेशन के लिए रिहा कर दिया गया।
गांधी जी के एकता वाले व्यक्तित्व के बिना इंडियन नेशनल कांग्रेस उसके जेल में दो साल रहने के दौरान ही दो दलों में बंटने लगी जिसके एक दल का नेतृत्व सदन में पार्टी की भागीदारी के पक्ष वाले चित्त रंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू ने किया तो दूसरे दल का नेतृत्व इसके विपरीत चलने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। इसके अलावा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अहिंसा आंदोलन की चरम सीमा पर पहुंचकर सहयोग टूट रहा था। गांधी जी ने इस खाई को बहुत से साधनों से भरने का प्रयास किया जिसमें उन्होंने १९२४ की बसंत में सीमित सफलता दिलाने वाले तीन सप्ताह का उपवास करना भी शामिल था।[11]
स्वराज और नमक सत्याग्रह (नमक मार्च)
गांधी जी सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे और १९२० की अधिकांश अवधि तक वे स्वराज पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस के बीच खाई को भरने में लगे रहे और इसके अतिरिक्त वे अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता और गरीबी के खिलाफ आंदोलन छेड़ते भी रहे। उन्होंने पहले १९२८ में लौटे .एक साल पहले अंग्रेजी सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक नया संवेधानिक सुधार आयोग बनाया जिसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। इसका परिणाम भारतीय राजनैतिक दलों द्वारा बहिष्कार निकला। दिसम्बर १९२८ में गांधी जी ने कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के एक अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें भारतीय साम्राज्य को सत्ता प्रदान करने के लिए कहा गया था अथवा ऐसा न करने के बदले अपने उद्देश्य के रूप में संपूर्ण देश की आजादी के लिए असहयोग आंदोलन का सामना करने के लिए तैयार रहें। गांधी जी ने न केवल युवा वर्ग सुभाष चंद्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू जैसे पुरूषों द्वारा तत्काल आजादी की मांग के विचारों को फलीभूत किया बल्कि अपनी स्वयं की मांग को दो साल[12] की बजाए एक साल के लिए रोक दिया। अंग्रेजों ने कोई जवाब नहीं दिया।.नहीं ३१ दिसम्बर १९२९, भारत का झंडा फहराया गया था लाहौर में है।२६ जनवरी१९३० का दिन लाहौर में भारतीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मनाया। यह दिन लगभग प्रत्येक भारतीय संगठनों द्वारा भी मनाया गया। इसके बाद गांधी जी ने मार्च १९३० में नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में नया सत्याग्रह चलाया जिसे १२ मार्च से ६ अप्रेल तक नमक आंदोलन के याद में ४०० किलोमीटर (२४८ मील) तक का सफर अहमदाबाद से दांडी, गुजरात तक चलाया गया ताकि स्वयं नमक उत्पन्न किया जा सके। समुद्र की ओर इस यात्रा में हजारों की संख्या में भारतीयों ने भाग लिया। भारत में अंग्रेजों की पकड़ को विचलित करने वाला यह एक सर्वाधिक सफल आंदोलन था जिसमें अंग्रेजों ने ८०,००० से अधिक लोगों को जेल भेजा।
लार्ड एडवर्ड इरविन द्वारा प्रतिनिधित्व वाली सरकार ने गांधी जी के साथ विचार विमर्श करने का निर्णय लिया। यह इरविन गांधी की संधि मार्च १९३१ में हस्ताक्षर किए थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन को बंद करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सभी राजनैतिक कैदियों को रिहा करने के लिए अपनी रजामंदी दे दी। इस समझौते के परिणामस्वरूप गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लंदन में आयोजित होने वाले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यह सम्मेलन गांधी जी और राष्ट्रीयवादी लोगों के लिए घोर निराशाजनक रहा, इसका कारण सत्ता का हस्तांतरण करने की बजाय भारतीय कीमतों एवं भारतीय अल्पसंख्यकों पर केंद्रित होना था। इसके अलावा, लार्ड इरविन के उत्तराधिकारी लार्ड विलिंगटन, ने राष्ट्रवादियों के आंदोलन को नियंत्रित एवं कुचलने का एक नया अभियान आरंभ करदिया। गांधी फिर से गिरफ्तार कर लिए गए और सरकार ने उनके अनुयाईयों को उनसे पूर्णतया दूर रखते हुए गांधी जी द्वारा प्रभावित होने से रोकने की कोशिश की। लेकिन, यह युक्ति सफल नहीं थी।
हरिजन आंदोलन और निश्चय दिवस
१९३२ में, दलित नेता और प्रकांड विद्वान डॉ॰ बाबासाहेब अम्बेडकर के चुनाव प्रचार के माध्यम से, सरकार ने अछूतों को एक नए संविधान के अंतर्गत अलग निर्वाचन मंजूर कर दिया। इसके विरोध में दलित हतों के विरोधी गांधी जी ने सितंबर १९३२ में छ: दिन का अनशन ले लिया जिसने सरकार को सफलतापूर्वक दलित से राजनैतिक नेता बने पलवंकर बालू द्वारा की गई मध्यस्ता वाली एक समान व्यवस्था को अपनाने पर बल दिया। अछूतों के जीवन को सुधारने के लिए गांधी जी द्वारा चलाए गए इस अभियान की शुरूआत थी। गांधी जी ने इन अछूतों को हरिजन का नाम दिया जिन्हें वे भगवान की संतान मानते थे। ८ मई १९३३ को गांधी जी ने हरिजन आंदोलन[13] में मदद करने के लिए आत्म शुद्धिकरण का २१ दिन तक चलने वाला उपवास किया। यह नया अभियान दलितों को पसंद नहीं आया तथापि वे एक प्रमुख नेता बने रहे। डॉ॰ बाबासाहेब अम्बेडकर ने गांधी जी द्वारा हरिजन शब्द का उपयोग करने की स्पष्ट निंदा की, कि दलित सामाजिक रूप से अपरिपक्व हैं और सुविधासंपन्न जाति वाले भारतीयों ने पितृसत्तात्मक भूमिका निभाई है। अम्बेडकर और उसके सहयोगी दलों को भी महसूस हुआ कि गांधी जी दलितों के राजनीतिक अधिकारों को कम आंक रहे हैं। हालांकि गांधी जी एक वैश्य जाति में पैदा हुए फिर भी उन्होनें इस बात पर जोर दिया कि वह डॉ॰ अम्बेडकर जैसे दलित मसिहा के होते हुए भी वह दलितों के लिए आवाज उठा सकता है। पूना संधी के बाद पुरी दुनिया जाना की गांधी नहीं डॉ॰ बाबासाहेब अम्बेडकर ही है दलितों के असली नेता। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दुस्तान की सामाजिक बुराइयों में में छुआछूत एक प्रमुख बुराई थी जिसके के विरूद्ध महात्मा गांधी और उनके अनुयायी संघर्षरत रहते थे। उस समय देश के प्रमुख मंदिरों में हरिजनों का प्रवेश पूर्णतः प्रतिबंधित था। केरल राज्य का जनपद त्रिशुर दक्षिण भारत की एक प्रमुख धार्मिक नगरी है। यहीं एक प्रतिष्ठित मंदिर है गुरुवायुर मंदिर, जिसमें कृष्ण भगवान के बालरूप के दर्शन कराती भगवान गुरूवायुरप्पन की मूर्ति स्थापित है। आजादी से पूर्व अन्य मंदिरों की भांति इस मंदिर में भी हरिजनों के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध था।
केरल के गांधी समर्थक श्री केलप्पन ने महात्मा की आज्ञा से इस प्रथा के विरूद्ध आवाज उठायी और अंततः इसके लिये सन् 1933 ई0 में सविनय अवज्ञा प्रारंभ की गयी। मंदिर के ट्रस्टियों को इस बात की ताकीद की गयी कि नये वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात 1 जनवरी 1934 को अंतिम निश्चय दिवस के रूप में मनाया जायेगा और इस तिथि पर उनके स्तर से कोई निश्चय न होने की स्थिति मे महात्मा गांधी तथा श्री केलप्पन द्वारा आन्दोलनकारियों के पक्ष में आमरण अनशन किया जा सकता है। इस कारण गुरूवायूर मंदिर के ट्रस्टियो की ओर से बैठक बुलाकर मंदिर के उपासको की राय भी प्राप्त की गयी। बैठक मे 77 प्रतिशत उपासको के द्वारा दिये गये बहुमत के आधार पर मंदिर में हरिजनों के प्रवेश को स्वीकृति दे दी गयी और इस प्रकार 1 जनवरी 1934 से केरल के श्री गुरूवायूर मंदिर में किये गये निश्चय दिवस की सफलता के रूप में हरिजनों के प्रवेश को सैद्वांतिक स्वीकृति मिल गयी। गुरूवायूर मंदिर जिसमें आज भी गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है तथापि कई घर्मो को मानने वाले भगवान भगवान गुरूवायूरप्पन के परम भक्त हैं। महात्मा गांधी की प्रेरणा से जनवरी माह के प्रथम दिवस को निश्चय दिवस के रूप में मनाया गया और किये गये निश्चय को प्राप्त किया गया। [14]। १९३४ की गर्मियों में, उनकी जान लेने के लिए उन पर तीन असफल प्रयास किए गए थे।
जब कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के लिए चुना और संघीय योजना के अंतर्गत सत्ता स्वीकार की तब गांधी जी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देने का निर्णय ले लिया। वह पार्टी के इस कदम से असहमत नहीं थे किंतु महसूस करते थे कि यदि वे इस्तीफा देते हैं तब भारतीयों के साथ उसकी लोकप्रियता पार्टी की सदस्यता को मजबूत करने में आसानी प्रदान करेगी जो अब तक कम्यूनिसटों, समाजवादियों, व्यापार संघों, छात्रों, धार्मिक नेताओं से लेकर व्यापार संघों और विभिन्न आवाजों के बीच विद्यमान थी। इससे इन सभी को अपनी अपनी बातों के सुन जाने का अवसर प्राप्त होगा। गांधी जी राज के लिए किसी पार्टी का नेतृत्व करते हुए प्रचार द्वारा कोई ऐसा लक्ष्य सिद्ध नहीं करना चाहते थे जिसे राज[15] के साथ अस्थायी तौर पर राजनैतिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर लिया जाए।
गांधी जी नेहरू प्रेजीडेन्सी और कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के साथ ही १९३६ में भारत लौट आए। हालांकि गांधी की पूर्ण इच्छा थी कि वे आजादी प्राप्त करने पर अपना संपूर्ण ध्यान केंद्रित करें न कि भारत के भविष्य के बारे में अटकलों पर। उसने कांग्रेस को समाजवाद को अपने उद्देश्य के रूप में अपनाने से नहीं रोका। १९३८ में राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए सुभाष बोस के साथ गांधी जी के मतभेद थे। बोस के साथ मतभेदों में गांधी के मुख्य बिंदु बोस की लोकतंत्र में प्रतिबद्धता की कमी तथा अहिंसा में विश्वास की कमी थी। बोस ने गांधी जी की आलोचना के बावजूद भी दूसरी बार जीत हासिल की किंतु कांग्रेस को उस समय छोड़ दिया जब सभी भारतीय नेताओं ने गांधी[16] जी द्वारा लागू किए गए सभी सिद्धातों का परित्याग कर दिया गया।
द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आन्दोलन
द्वितीय विश्व युद्ध १९३९ में जब छिड़ने नाजी जर्मनी आक्रमण पोलैंड.आरंभ में गांधी जी ने अंग्रेजों के प्रयासों को अहिंसात्मक नैतिक सहयोग देने का पक्ष लिया किंतु दूसरे कांग्रेस के नेताओं ने युद्ध में जनता के प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना इसमें एकतरफा शामिल किए जाने का विरोध किया। कांग्रेस के सभी चयनित सदस्यों ने सामूहिक तौर[17] पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। लंबी चर्चा के बाद, गांधी ने घोषणा की कि जब स्वयं भारत को आजादी से इंकार किया गया हो तब लोकतांत्रिक आजादी के लिए बाहर से लड़ने पर भारत किसी भी युद्ध के लिए पार्टी नहीं बनेगी। जैसे जैसे युद्ध बढता गया गांधी जी ने आजादी के लिए अपनी मांग को अंग्रेजों को भारत छोड़ो आन्दोलन नामक विधेयक देकर तीव्र कर दिया। यह गांधी तथा कांग्रेस पार्टी का सर्वाधिक स्पष्ट विद्रोह था जो भारतीय सीमा[18] से अंग्रेजों को खदेड़ने पर लक्षित था।
गांधी जी के दूसरे नंबर पर बैठे जवाहरलाल नेहरू की पार्टी के कुछ सदस्यों तथा कुछ अन्य राजनैतिक भारतीय दलों ने आलोचना की जो अंग्रेजों के पक्ष तथा विपक्ष दोनों में ही विश्वास रखते थे। कुछ का मानना था कि अपने जीवन काल में अथवा मौत के संघर्ष में अंग्रेजों का विरोध करना एक नश्वर कार्य है जबकि कुछ मानते थे कि गांधी जी पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहे हैं। भारत छोड़ो इस संघर्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन बन गया जिसमें व्यापक हिंसा और गिरफ्तारी हुई।[19] पुलिस की गोलियों से हजारों की संख्या में स्वतंत्रता सेनानी या तो मारे गए या घायल हो गए और हजारों गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी और उनके समर्थकों ने स्पष्ट कर दिया कि वह युद्ध के प्रयासों का समर्थन तब तक नहीं देंगे तब तक भारत को तत्काल आजादी न दे दी जाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस बार भी यह आन्दोलन बन्द नहीं होगा यदि हिंसा के व्यक्तिगत कृत्यों को मूर्त रूप दिया जाता है। उन्होंने कहा कि उनके चारों ओर अराजकता का आदेश असली अराजकता से भी बुरा है। उन्होंने सभी कांग्रेसियों और भारतीयों को अहिंसा के साथ करो या मरो (अंग्रेजी में डू ऑर डाय) के द्वारा अन्तिम स्वतन्त्रता के लिए अनुशासन बनाए रखने को कहा।
गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों को अंग्रेजों द्वारा मुबंई में ९ अगस्त १९४२ को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी को पुणे के आंगा खां महल में दो साल तक बंदी बनाकर रखा गया। यही वह समय था जब गांधी जी को उनके निजी जीवन में दो गहरे आघात लगे। उनका ५० साल पुराना सचिव महादेव देसाई ६ दिन बाद ही दिल का दौरा पड़ने से मर गए और गांधी जी के १८ महीने जेल में रहने के बाद २२ फरवरी १९४४ को उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का देहांत हो गया। इसके छ: सप्ताह बाद गांधी जी को भी मलेरिया का भयंकर शिकार होना पड़ा। उनके खराब स्वास्थ्य और जरूरी उपचार के कारण ६ मई १९४४ को युद्ध की समाप्ति से पूर्व ही उन्हें रिहा कर दिया गया। राज उन्हें जेल में दम तोड़ते हुए नहीं देखना चाहते थे जिससे देश का क्रोध बढ़ जाए। हालांकि भारत छोड़ो आंदोलन को अपने उद्देश्य में आशिंक सफलता ही मिली लेकिन आंदोलन के निष्ठुर दमन ने १९४३ के अंत तक भारत को संगठित कर दिया। युद्ध के अंत में, ब्रिटिश ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि संत्ता का हस्तांतरण कर उसे भारतीयों के हाथ में सोंप दिया जाएगा। इस समय गांधी जी ने आंदोलन को बंद कर दिया जिससे कांग्रेसी नेताओं सहित लगभग १००,००० राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया।
स्वतंत्रता और भारत का विभाजन
गांधी जी ने १९४६ में कांग्रेस को ब्रिटिश केबीनेट मिशन (British Cabinet Mission) के प्रस्ताव को ठुकराने का परामर्श दिया क्योकि उसे मुस्लिम बाहुलता वाले प्रांतों के लिए प्रस्तावित समूहीकरण के प्रति उनका गहन संदेह होना था इसलिए गांधी जी ने प्रकरण को एक विभाजन के पूर्वाभ्यास के रूप में देखा। हालांकि कुछ समय से गांधी जी के साथ कांग्रेस द्वारा मतभेदों वाली घटना में से यह भी एक घटना बनी (हालांकि उसके नेत्त्व के कारण नहीं) चूंकि नेहरू और पटेल जानते थे कि यदि कांग्रेस इस योजना का अनुमोदन नहीं करती है तब सरकार का नियंत्रण मुस्लिम लीग के पास चला जाएगा। १९४८ के बीच लगभग ५००० से भी अधिक लोगों को हिंसा के दौरान मौत के घाट उतार दिया गया। गांधी जी किसी भी ऐसी योजना के खिलाफ थे जो भारत को दो अलग अलग देशों में विभाजित कर दे। भारत में रहने वाले बहुत से हिंदुओं और सिक्खों एवं मुस्लिमों का भारी बहुमत देश के बंटवारे[तथ्य वांछित] के पक्ष में था। इसके अतिरिक्त मुहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग के नेता ने, पश्चिम पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और पूर्वी बंगाल[तथ्य वांछित] में व्यापक सहयोग का परिचय दिया। व्यापक स्तर पर फैलने वाले हिंदु मुस्लिम लड़ाई को रोकने के लिए ही कांग्रेस नेताओं ने बंटवारे की इस योजना को अपनी मंजूरी दे दी थी। कांगेस नेता जानते थे कि गांधी जी बंटवारे का विरोध करेंगे और उसकी सहमति के बिना कांग्रेस के लिए आगे बझना बसंभव था चुकि पाटर्ठी में गांधी जी का सहयोग और संपूर्ण भारत में उनकी स्थिति मजबूत थी। गांधी जी के करीबी सहयोगियों ने बंटवारे को एक सर्वोत्तम उपाय के रूप में स्वीकार किया और सरदार पटेल ने गांधी जी को समझाने का प्रयास किया कि नागरिक अशांति वाले युद्ध को रोकने का यही एक उपाय है। मज़बूर गांधी ने अपनी अनुमति दे दी।
उन्होंने उत्तर भारत के साथ-साथ बंगाल में भी मुस्लिम और हिंदु समुदाय के नेताओं के साथ गर्म रवैये को शांत करने के लिए गहन विचार विमर्श किया। १९४७ के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बावजूद उन्हें उस समय परेशान किया गया जब सरकार ने पाकिस्तान को विभाजन परिषद द्वारा बनाए गए समझौते के अनुसार ५५ करोड़ रू0 न देने का निर्णय लियाथा। सरदार पटेल जैसे नेताओं को डर था कि पाकिस्तान इस धन का उपयोग भारत के खिलाफ़ जंग छेड़ने में कर सकता है। जब यह मांग उठने लगी कि सभी मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजा जाए और मुस्लिमों और हिंदु नेताओं ने इस पर असंतोष व्यक्त किया और एक दूसरे[20] के साथ समझौता करने से मना करने से गांधी जी को गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने दिल्ली में अपना पहला आमरण अनशन आरंभ किया जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा को सभी के लिए तत्काल समाप्त करने और पाकिस्तान को 55 करोड़ रू0 का भुगतान करने के लिए कहा गया था। गांधी जी को डर था कि पाकिस्तान में अस्थिरता और असुरक्षा से भारत के प्रति उनका गुस्सा और बढ़ जाएगा तथा सीमा पर हिंसा फैल जाएगी। उन्हें आगे भी डर था कि हिंदु और मुस्लिम अपनी शत्रुता को फिर से नया कर देंगे और उससे नागरिक युद्ध हो जाने की आशंका बन सकती है। जीवन भर गांधी जा का साथ देने वाले सहयोगियों के साथ भावुक बहस के बाद गांधी जी ने बात का मानने से इंकार कर दिया और सरकार को अपनी नीति पर अडिग रहना पड़ा तथा पाकिस्तान को भुगतान कर दिया। हिंदु मुस्लिम और सिक्ख समुदाय के नेताओं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वे हिंसा को भुला कर शांति लाएंगे। इन समुदायों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा शामिल थे। इस प्रकार गांधी जी ने संतरे का जूस[21] पीकर अपना अनशन तोड़ दिया।
हत्या
मुख्य लेख : मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या
३० जनवरी, १९४८, गांधी की उस समय गोली मारकर हत्या कर दी गई जब वे नई दिल्ली के बिड़ला भवन (बिरला हाउस के मैदान में रात चहलकदमी कर रहे थे। गांधी का हत्यारा नाथूराम गौड़से हिन्दू राष्ट्रवादी थे जिनके कट्टरपंथी हिंदु महासभा के साथ संबंध थे जिसने गांधी जी को पाकिस्तान[22] को भुगतान करने के मुद्दे को लेकर भारत को कमजोर बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया था। गोड़से और उसके उनके सह षड्यंत्रकारी नारायण आप्टे को बाद में केस चलाकर सजा दी गई तथा १५ नवंबर१९४९ को इन्हें फांसी दे दी गई। राज घाट, नई दिल्ली, में गांधी जी के स्मारक पर "देवनागरी में हे राम " लिखा हुआ है। ऐसा व्यापक तौर पर माना जाता है कि जब गांधी जी को गोली मारी गई तब उनके मुख से निकलने वाले ये अंतिम शब्द थे। हालांकि इस कथन पर विवाद उठ खड़े हुए हैं।[23]जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो के माध्यम से राष्ट्र को संबोधित किया :
गांधी जी की राख को एक अस्थि-रख दिया गया और उनकी सेवाओं की याद दिलाने के लिए संपूर्ण भारत में ले जाया गया। इनमें से अधिकांश को इलाहाबाद में संगम पर १२ फरवरी १९४८ को जल में विसर्जित कर दिया गया किंतु कुछ को अलग[24] पवित्र रूप में रख दिया गया। १९९७ में, तुषार गाँधी ने बैंक में नपाए गए एक अस्थि-कलश की कुछ सामग्री को अदालत के माध्यम से, इलाहाबाद में संगम[24][25] नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया। ३० जनवरी२००८ को दुबई में रहने वाले एक व्यापारी द्वारा गांधी जी की राख वाले एक अन्य अस्थि-कलश को मुंबई संग्रहालय[24] में भेजने के उपरांत उन्हें गिरगाम चौपाटी नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया गया। एक अन्य अस्थि कलश आगा खान जो पुणे[24] में है, (जहाँ उन्होंने १९४२ से कैद करने के लिए किया गया था १९४४) वहां समाप्त हो गया और दूसरा आत्मबोध फैलोशिप झील मंदिर में लॉस एंजिल्स.[26]रखा हुआ है। इस परिवार को पता है कि इस पवित्र राख का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए दुरूपयोग किया जा सकता है लेकिन उन्हें यहां से हटाना नहीं चाहती हैं क्योंकि इससे मंदिरों .[24] को तोड़ने का खतरा पैदा हो सकता है।
गांधी के सिद्धांत
सत्य
गांधी जी ने अपना जीवन सत्य, या सच्चाई की व्यापक खोज में समर्पित कर दिया। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने करने के लिए अपनी स्वयं की गल्तियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सीखने की कोशिश की। उन्होंने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग का नाम दिया।
गांधी जी ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ने के लिए अपने दुष्टात्माओं , भय और असुरक्षा जैसे तत्वों पर विजय पाना है। .गांधी जी ने अपने विचारों को सबसे पहले उस समय संक्षेप में व्यक्त किया जब उन्होंने कहा भगवान ही सत्य है बाद में उन्होने अपने इस कथन को सत्य ही भगवान है में बदल दिया। इस प्रकार , सत्य में गांधी के दर्शन है " परमेश्वर " .
अहिंसा
हालांकि गांधी जी अहिंसा के सिद्धांत के प्रवर्तक बिल्कुल नहीं थे फिर भी इसे बड़े पैमाने [27]पर राजनैतिक क्षेत्र में इस्तेमाल करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। अहिंसा (nonviolence), अहिंसा (ahimsa) और अप्रतिकार (nonresistance)का भारतीय धार्मिक विचारों में एक लंबा इतिहास है और इसके हिंदु, बौद्ध, जैन, यहूदी और ईसाई समुदायों में बहुत सी अवधारणाएं हैं। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ " (The Story of My Experiments with Truth)में दर्शन और अपने जीवन के मार्ग का वर्णन किया है। उन्हें कहते हुए बताया गया था:
इन सिद्धातों को लागू करने में गांधी जी ने इन्हें दुनिया को दिखाने के लिए सर्वाधिक तार्किक सीमा पर ले जाने से भी मुंह नहीं मोड़ा जहां सरकार, पुलिस और सेनाए भी अहिंसात्मक बन गईं थीं। " फॉर पसिफिस्ट्स."[28] नामक पुस्तक से उद्धरण लिए गए हैं।
वाला समाज होगा।
। शांति एवं अव्यवस्था के समय सशस्त्र सैनिकों की तरह सेना का कोई
मिलने लगता है।
इन विचारों के अनुरूप १९४० में जब नाजी जर्मनी द्वारा अंग्रेजों के द्वीपों पर किए गए हमले आसन्न दिखाई दिए तब गांधी जी ने अंग्रेजों को शांति और युद्ध [29]में अहिंसा की निम्नलिखित नीति का अनुसरण करने को कहा।
१९४६ में युद्ध के बाद दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने इससे भी आगे एक विचार का प्रस्तुतीकरण किया।
फिर भी गांधी जी को पता था कि इस प्रकार के अहिंसा के स्तर को अटूट विश्वास और साहस की जरूरत होगी और इसके लिए उसने महसूस कर लिया था कि यह हर किसी के पास नहीं होता है। इसलिए उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को परामर्श दिया कि उन्हें अहिंसा को अपने पास रखने की जरूरत नहीं है खास तौर पर उस समय जब इसे कायरता के संरक्षण के लिए उपयोग में किया गया हो।
खाने के लिए सदा तैयार रहने वालों में भी होती है।
शाकाहारी रवैया
बाल्यावस्था में गांधी को मांस खाने का अनुभव मिला। ऐसा उनकी उत्तराधिकारी जिज्ञासा के कारण ही था जिसमें उसके उत्साहवर्धक मित्र शेख मेहताब का भी योगदान था। वेजीटेरियनिज्म का विचार भारत की हिंदु और जैन प्रथाओं में कूट-कूट कर भरा हुआ था तथा उनकी मातृभूमि गुजरात में ज्यादातर हिंदु शाकाहारी ही थे। इसी तरह जैन भी थे। गांधी का परिवार भी इससे अछूता नहीं था। पढाई के लिए लंदन आने से पूर्व गांधी जी ने अपनी माता पुतलीबाई और अपने चाचा बेचारजी स्वामी से एक वायदा किया था कि वे मांस खाने, शराब पीने से तथा संकीणता से दूर रहेंगे। उन्होने अपने वायदे रखने के लिए उपवास किए और ऐसा करने से सबूत कुछ ऐसा मिला जो भोजन करने से नहीं मिल सकता था, उन्होंने अपने जीवन पर्यन्त दर्शन के लिए आधार जो प्राप्त कर लिया था। जैसे जैसे गांधी जी व्यस्क होते गए वे पूर्णतया शाकाहारी बन गए। उन्होंने द मोरल बेसिस ऑफ वेजीटेरियनिज्म तथा इस विषय पर बहुत सी लेख भी लिखें हैं जिनमें से कुछ लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के प्रकाशन द वेजीटेरियन [32]में प्रकाशित भी हुए हैं। गांधी जी स्वयं इस अवधि में बहुत सी महान विभूतियों से प्रेरित हुए और लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के चैयरमेन डॉ० जोसिया ओल्डफील्ड के मित्र बन गए।
हेनरी स्टीफन साल्ट|हेनरी स्टीफन साल्ट (Henry Stephens Salt)की कृतियों को पढने और प्रशंषा करने के बाद युवा मोहनदास गांधी शाकाहारी प्रचारक से मिले और उनके साथ पत्राचार किया। गांधी जी ने लंदन में रहते समय और उसके बाद शाकाहारी भोजन की वकालत करने में काफी समय बिताया। गांधी जी का कहना था कि शाकाहारी भोजन न केवल शरीर की जरूरतों को पूरा करता है बल्कि यह आर्थिक प्रयोजन की भी पूर्ति करता है जो मांस से होती है और फिर भी मांस अनाज, सब्जियों और फलों से अधिक मंहगा होता है। इसके अलावा कई भारतीय जो आय कम होने की वजह से संघर्ष कर रहे थे, उस समय जो शाकाहारी के रूप में दिखाई दे रहे थे वह आध्यात्मिक परम्परा ही नहीं व्यावहारिकता के कारण भी था.वे बहुत देर तक खाने से परहेज रखते थे , और राजनैतिक विरोध के रूप में उपवास रखते थे उन्होंने अपनी मृत्यु तक खाने से इनकार किया जब तक उनका मांग पुरा नही होता उनकी आत्मकथा में यह नोट किया गया है कि शाकाहारी होना ब्रह्मचर्य में गहरी प्रतिबद्धता होने की शुरूआती सीढ़ी है, बिना कुल नियंत्रण ब्रह्मचर्य में उनकी सफलता लगभग असफल है.
गाँधी जी शुरू से फलाहार (frutarian),[33] करते थे लेकिन अपने चिकित्सक की सलाह से बकरी का दूध पीना शुरू किया था.वे कभी भी दुग्ध -उत्पाद का सेवन नही करते थे क्योंकि पहले उनका मानना था की दूध मनुष्य का प्राकृतिक आहार नहीं होता और उन्हें गाय के चीत्कार सेघृणा (cow blowing),[34] थी और सबसे महत्वपूर्ण कारण था शपथ जो उन्होंने अपनी स्वर्गीय माँ से किया था
ब्रह्मचर्य
जब गाँधी जी सोलह साल के हुए तब उनके पिताश्री की तबियत बहुत ख़राब थी उनके पिता की बीमारी के दौरान वे हमेशा उपस्थित रहते थे क्योंकि वे अपने माता-पिता के प्रति अत्यंत समर्पित थे. यद्यपि, गाँधी जी को कुछ समय की राहत देने के लिए एक दिन उनके चाचा जी आए वे आराम के लिए शयनकक्ष पहुंचे जहाँ उनकी शारीरिक अभिलाषाएं जागृत हुई और उन्होंने अपनी पत्नी से प्रेम किया नौकर के जाने के पश्चात् थोडी ही देर में ख़बर आई की गाँधी के पिता का अभी अभी देहांत हो गया है.गाँधी जी को जबरदस्त अपराध महसूस हुआ और इसके लिए वे अपने आप को कभी माफ नहीं कर सकते थे उन्होंने इस घटना का जिक्र दोहरी शर्म में किया इस घटना का गाँधी पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा और वे ३६ वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य (celibate) की और मुड़ने लगे, जबकि उनकी शादी हो चुकी थी.[35]
यह निर्णय ब्रहमचर्य (Brahmacharya) के दर्शन से पुरी तरह प्रभावित था आध्यात्मिक और व्यवहारिक शुद्धता बड़े पैमाने पर ब्रह्मचर्य और वैराग्यवाद (asceticism) से जुदा होता है.गाँधी ने ब्रह्मचर्य को भगवान् के करीब आने और अपने को पहचानने का प्राथमिक आधार के रूप में देखा था अपनी आत्मकथा में वे अपनी बचपन की दुल्हन कस्तूरबा (Kasturba) के साथ अपनी कामेच्छा और इर्ष्या के संघर्षो को बतातें हैं उन्होंने महसूस किया कि यह उनका व्यक्तिगत दायित्व है की उन्हें ब्रह्मचर्य रहना है ताकि वे बजाय हवस के प्रेम को सिख पायें गाँधी के लिए, ब्रह्मचर्य का अर्थ था "इन्द्रियों के अंतर्गत विचारों, शब्द और कर्म पर नियंत्रण".[36]
सादगी
गाँधी जी का मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन (simple life) की और ही बढ़ना चाहिए जिसे वे ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानते थे. उनकी सादगी (simplicity) ने पश्चमी जीवन शैली को त्यागने पर मजबूर करने लगा और वे दक्षिण अफ्रीका में फैलने लगे थे इसे वे "ख़ुद को शुन्य के स्थिति में लाना" कहते हैं जिसमे अनावश्यक खर्च, साधारण जीवन शैली को अपनाना और अपने वस्त्र स्वयं धोना आवश्यक है.[37]एक अवसर पर जन्मदार की और से सम्मुदय के लिए उनकी अनवरत सेवा के लिए प्रदान किए गए उपहार को भी वापस कर देते हैं.[38]
गाँधी सप्ताह में एक दिन मौन धारण करते थे.उनका मानना था कि बोलने के परहेज से उन्हें आतंरिक शान्ति (inner peace) मिलाती है. उनपर यह प्रभाव हिंदू मौन सिद्धांत का है, (संस्कृत: - मौन) और शान्ति (संस्कृत: -शान्ति)वैसे दिनों में वे कागज पर लिखकर दूसरों के साथ संपर्क करते थे 37 वर्ष की आयु से साढ़े तीन वर्षों तक गांधी जी ने अख़बारों को पढ़ने से इंकार कर दिया जिसके जवाब में उनका कहना था कि जगत की आज जो स्थिर अवस्था है उसने उसे अपनी स्वयं की आंतरिक अशांति की तुलना में अधिक भ्रमित किया है।
जॉन रस्किन (John Ruskin) की अन्टू दिस लास्ट (Unto This Last), पढने के बाद उन्होंने अपने जीवन शैली में परिवर्तन करने का फैसला किया तथा एक समुदाय बनाया जिसे अमरपक्षी अवस्थापन कहा जाता था.
दक्षिण अफ्रीका, जहाँ से उन्होंने वकालत पूरी की थी तथा धन और सफलता के साथ जुड़े थे वहां से लौटने के पश्चात् उन्होंने पश्चमी शैली के वस्त्रों का त्याग किया.उन्होंने भारत के सबसे गरीब इंसान के द्वारा जो वस्त्र पहने जाते हैं उसे स्वीकार किया, तथा घर में बने हुए कपड़े (खादी) पहनने की वकालत भी की.गाँधी और उनके अनुयायियों ने अपने कपड़े सूत के द्वारा ख़ुद बुनने के अभ्यास को अपनाया और दूसरो को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया हालाँकि भारतीय श्रमिक बेरोज़गारी के कारण बहुधा आलसी थे, वे अक्सर अपने कपड़े उन औद्योगिक निर्माताओं से खरीदते थे जिसका उद्देश्य ब्रिटिश हितों को पुरा करना था. गाँधी का मत था कि अगर भारतीय अपने कपड़े ख़ुद बनाने लगे, तो यह भारत में बसे ब्रिटिशों को आर्थिक झटका लगेगा. फलस्वरूप, बाद में चरखा (spinning wheel) को भारतीय राष्ट्रीय झंडा में शामिल किया गया. अपने साधारण जीवन को दर्शाने के लिए उन्होंने बाद में अपनी बाकी जीवन में धोती पहनी
विश्वास
गाँधी का जन्म हिंदू धर्म में हुआ, उनके पुरे जीवन में अधिकतर सिधान्तों की उत्पति हिंदुत्व से हुआ. साधारण हिंदू कि तरह वे सारे धर्मों को समान रूप से मानते थे, और सारे प्रयासों जो उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए कोशिश किए जा रहे थे उसे अस्वीकार किया. वे ब्रह्मज्ञान के जानकार थे और सभी प्रमुख धर्मो को विस्तार से पढ़तें थे. उन्होंने हिंदू धर्म के बारे में निम्नलिखित कहा है.
गाँधी ने भगवद गीता की व्याख्या गुजराती में भी की है.महादेव देसाई ने गुजराती पाण्डुलिपि का अतिरिक्त भूमिका तथा विवरण के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया है गाँधी के द्वारा लिखे गए प्राक्कथन के साथ इसका प्रकाशन १९४६ में हुआ था .[39][40]
गाँधी का मानना था कि प्रत्येक धर्म के मूल में सत्य और प्रेम होता है ( संवेदना, अहिंसा और स्वर्ण नियम) (the Golden Rule)) ढोंग, कुप्रथा आदि पर भी उन्होंने सभी धर्मो के सिधान्तों से सवाल किए और वे एक अथक समाज सुधारक थे.उनकी कुछ टिप्पणियां विभिन्न धर्मो पर है ;
बाद में उनके जीवन में जब पूछा गया कि क्या तुम हिंदू हो, उन्होंने कहा:
एक दूसरे के प्रति गहरा आदर भाव होने के बावजूद गाँधी और रबिन्द्रनाथ टैगोर एक से अधिक बार लम्बी बहस में लगे रहे. ये वाद विवाद दोनों के दार्शनिक मतभेद को दर्शाती है और ये दोनों ही उस समय के प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक थे १५ जनवरी १९३४ में बिहार में एक भूकंप आया और जिसके कारण व्यापक नुकसान हुआ और कई जानें गईं गाँधी जी ने अपने आप को संभाला क्योंकि यह पाप हिंदू धर्म के उच्च जाती वर्गों के द्वारा किया गया था जो अपने मंदिरों में अछूतों को अंदर जाने से मना करते थे ( गाँधी के कारण ही छुआछुत में वृद्धि हुई थी क्योंकि उन्होंने उन्हें हरिजन (Harijan), कृष्ण के लोग कहा था, गाँधी के विचारों का टगोर (Tagore) ने जोरदार विरोध किया और कहा कि भूकंप नैतिक कारणों से नही प्राकृतिक शक्तियों से होती हैं, चाहे वह अस्पृश्यता की प्रथा के कितने ही विरुद्ध हो.[41]
लेखन
गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमे हरिजन, इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया आदि सम्मिलित हैं। जब वे भारत में वापस आए तब उन्होंने 'नवजीवन' नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ।[42] इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखा
गाँधी ने कुछ किताबें भी लिखी अपनी आत्मकथा के साथ, एक आत्मकथा या सत्य के साथ मेरे प्रयोग (An Autobiography or My Experiments with Truth), दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह, वहां के संघर्षो के बारें में, हिंद स्वराज या इंडियन होम रुल, राजनैतिक प्रचार पत्रिका और जॉन रस्किन की अन्टू दिस लास्ट (Unto This Last) की गुजराती में व्याख्या की है।[43] अन्तिम निबंध को उनका अर्थशास्त्र से सम्बंधित कार्यक्रम कहा जा सकता है उन्होंने शाकाहार, भोजन और स्वास्थ्य, धर्म, सामाजिक सुधार पर भी विस्तार से लिखा है। गाँधी आमतौर पर गुजराती में लिखतें थे परन्तु अपनी किताबों का हिदी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते थे।
गाँधी का पूरा कार्य महात्मा गाँधी के संचित लेख नाम से १९६० में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह लेखन लगभग ५०००० पन्नों में समाविष्ट है और तक़रीबन सौ खंडों में प्रकाशित है। सन २००० में गाँधी के पुरा कार्यों का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया क्योंकि गाँधी के अनुयायियों ने सरकार पर राजनितिक उदेश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया.[44]
गाँधी पर पुस्तकें
कई जीवनी लेखकों ने गाँधी के जीवन वर्णन का कार्य लिया है उनमें से दो कार्य अलग हैं;डीजी तेंदुलकर अपने महात्मा के साथ. मोहनदास करमचंद गाँधी का जीवन आठ खंडों में है और महात्मा गाँधी के साथ प्यारेलाल और सुशीला नायर १० खंडों में है। कर्नल जी बी अमेरिकी सेना के सिंह ने कहा की अपने तथ्यात्मक शोध पुस्तक गाँधी: बेहायिंड द मास्क ऑफ़ डिविनिटी के मूल भाषण और लेखन के लिए उन्होंने अपने २० वर्ष[45] लगा दिए
कथित समलैंगिक प्रेम संबंध
२०११ में प्रकाशित किताब ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विद इंडिया में पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता लेखक जोसेफ़ लेलीवेल्ड ने महात्मा गाँधी और उनके दक्षिण अफ़्रीका में रहे सहयोगी हर्मन केलेनबाख के रिश्तों को अनन्य प्रेम सम्बन्ध बताया है। पुस्तक के प्रकाशन के समय इस कारण से भारत में विवाद हो गया, और गाँधी के गृह राज्य गुजरात की विधान सभा ने एक संकल्प के माध्यम से इस पुस्तक की बिक्री प्र रोक लगा दी।[46] लेलीवेल्ड के मुताबिक, उनकी पुस्तक के आधार पर गाँधी की समलैंगी या द्विलिंगी होने के लगाए जा रहे आंकलन गलत हैं। उन्होंने कहा, "यह किताब ये नहीं कहती कि गाँधी समलैंगिक या द्विलिंगी थे।यह [किताब] कहती है कि [गाँधी] ब्रह्मचारी थे, और कैलेनबाख से गहरे [दिल] से जुडे थे। और यह कोई नई जानकारी नहीं है।" [47](यथाशब्द)।
गांधी और कालेनबाख
महात्मा गांधी और उनके दक्षिण अफ्रीकी मित्र हरमन कालेनबाख से संबंधित दस्तावेजों को 1.28 मिलियन डॉलर (करीब 6.88 करोड़ रुपए) में खरीद कर भारत लाया गया है। 2012 में नीलाम होने से पहले भारत सरकार ने इन्हें सोदबी नीलामी घर से गोपनीय करार में खरीदा था। कालेनबाख दक्षिण अफ्रीका में जिम्नास्ट, बॉडी बिल्डर और आर्किटेक्ट थे। उन्होंने एमके गांधी को कुछ ऐसे भी पत्र भेजे थे जिन्हें कुछ समीक्षक ‘प्रेम पत्र’ कहते हैं। इन दोनों लोगों का रिश्ता काफी विवादित रहा था।[48]
अनुयायियों और प्रभाव
महत्वपूर्ण नेता और राजनीतिक गतिविधियाँ गाँधी से प्रभावित थीं। अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन के नेताओं में मार्टिन लूथर किंग और जेम्स लाव्सन गाँधी के लेखन जो उन्हीं के सिद्धांत अहिंसा को विकसित करती है, से काफी आकर्षित हुए थे।[49] विरोधी-रंगभेद कार्यकर्ता और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला, गाँधी जी से प्रेरित थे।[50] और दुसरे लोग खान अब्दुल गफ्फेर खान,[51]स्टीव बिको और औंग सू कई (Aung San Suu Kyi) हैं।[52]
गाँधी का जीवन तथा उपदेश कई लोगों को प्रेरित करती है जो गाँधी को अपना गुरु मानते है या जो गाँधी के विचारों का प्रसार करने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। यूरोप के, रोमेन रोल्लांड पहला व्यक्ति था जिसने १९२४ में अपने किताब महात्मा गाँधी में गाँधी जी पर चर्चा की थी और ब्राजील की अराजकतावादी (anarchist) और नारीवादी मारिया लासर्दा दे मौरा ने अपने कार्य शांतिवाद में गाँधी के बारें में लिखा.१९३१ में उल्लेखनीय भौतिक विज्ञानी अलबर्ट आइंस्टाइन, गाँधी के साथ पत्राचार करते थे और अपने बाद के पत्रों में उन्हें "आने वाले पीढियों का आदर्श" कहा.[53]लांजा देल वस्तो (Lanza del Vasto) महात्मा गाँधी के साथ रहने के इरादे से सन १९३६ में भारत आया; और बाद में गाँधी दर्शन को फैलाने के लिए वह यूरोप वापस आया और १९४८ में उसने कम्युनिटी ऑफ़ द आर्क की स्थापना की.(गाँधी के आश्रम से प्रभावित होकर)मदेलिने स्लेड (मीराबेन) ब्रिटिश नौसेनापति की बेटी थी जिसने अपना अधिक से अधिक व्यस्क जीवन गाँधी के भक्त के रूप में भारत में बिताया था।
इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश संगीतकार जॉन लेनन ने गाँधी का हवाला दिया जब वे अहिंसा पर अपने विचारों को व्यक्त कर रहे थे।[54] २००७ में केन्स लिओंस अन्तर राष्ट्रीय विज्ञापन महोत्सव (Cannes Lions International Advertising Festival), अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद अल गोर ने उन पर गाँधी के प्रभाव को बताया.[55]
पैतृक सम्पति
२ अक्टूबर गाँधी का जन्मदिन है इसलिए गाँधी जयंती के अवसर पर भारत में राष्ट्रीय अवकाश होता है १५ जून २००७ को यह घोषणा की गई थी कि "सयुंक्त राष्ट्र महा सभा " एक प्रस्ताव की घोषणा की, कि २ अक्टूबर (2 October) को "अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस" के रूप में मनाया जाएगा.[56]
अक्सर पश्चिम में महात्मा शब्द का अर्थ ग़लत रूप में ले लिया जाता है उनके अनुसार यह संस्कृत से लिया गया है जिसमे महा का अर्थ महान और आत्म का अर्थ आत्मा होता है। ज्यादातर सूत्रों के अनुसार जैसे दत्ता और रोबिनसन के रबिन्द्रनाथ टगोर: संकलन में कहा गया है कि रबिन्द्रनाथ टगोर ने सबसे पहले गाँधी को महात्मा का खिताब दिया था।[57] अन्य सूत्रों के अनुसार नौतामलाल भगवानजी मेहता ने २१ जनवरी १९१५ में उन्हें यह खिताब दिया था।[58] हालाँकि गाँधी ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि उन्हें कभी नही लगा कि वे इस सम्मान के योग्य हैं।[59] मानपत्र के अनुसार, गाँधी को उनके न्याय और सत्य के सराहनीये बलिदान के लिए महात्मा नाम मिला है।[60]
१९३० में टाइम पत्रिका ने महात्मा गाँधी को वर्ष का पुरूष का नाम दियाI १९९९ में गाँधी अलबर्ट आइंस्टाइन जिन्हे सदी का पुरूष नाम दिया गया के मुकाबले द्वितीय स्थान जगह पर थे। टाइम पत्रिका ने दलाई लामा, लेच वालेसा, डॉ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर, सेसर शावेज़, औंग सान सू कई, बेनिग्नो अकुइनो जूनियर, डेसमंड टूटू और नेल्सन मंडेला को गाँधी के पुत्र के रूप में कहा और उनके अहिंसा के आद्यात्मिक उतराधिकारी.[61] भारत सरकार प्रति वर्ष उल्लेखनीय सामाजिक कार्यकर्ताओं, विश्व के नेताओं और नागरिकों को महात्मा गाँधी शांति पुरुस्कार से पुरुस्कृत करती है। नेल्सन मंडेला, साऊथ अफ्रीका के नेता जो कि जातीय मतभेद और पार्थक्य के उन्मूलन में संघर्षरत रहे हैं, इस पुरूस्कार के लिए एक प्रवासी भारतीय के रूप में प्रबल दावेदार हैं।
१९९६ में, भारत सरकार ने महात्मा गाँधी की श्रृंखला के नोटों के मुद्रण को १, ५, १०, २०, ५०, १००, ५०० और १००० के अंकन के रूप में आरम्भ किया। आज जितने भी नोट इस्तेमाल में हैं उनपर महात्मा गाँधी का चित्र है। १९६९ में यूनाइटेड किंगडम ने डाक टिकेट की एक श्रृंखला महात्मा गाँधी के शत्वर्शिक जयंती के उपलक्ष्य में जारी की.
यूनाइटेड किंगडम में ऐसे अनेक गाँधी जी की प्रतिमाएँ उन ख़ास स्थानों पर हैं जैसे लन्दन विश्वविद्यालय कालेज के पास ताविस्तोक चौक, लन्दन जहाँ पर उन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की. यूनाइटेड किंगडम में जनवरी ३० को “राष्ट्रीय गाँधी स्मृति दिवस” मनाया जाता है।संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं।
गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नही हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है .[62] दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था।[63] गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नही दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नही था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरुष्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने ये कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रधांजलि का ही हिस्सा है।"[64]
बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी, १९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया. यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। एक शहीद स्तम्भ अब उस जगह को चिन्हित करता हैं जहाँ पर उनकी हत्या कर दी गयी थी।
प्रति वर्ष ३० जनवरी को, महात्मा गाँधी के पुण्यतिथि पर कई देशों के स्कूलों में अहिंसा और शान्ति का स्कूली दिन (DENIP मनाया जाता है जिसकी स्थापना १९६४ स्पेन में हुयी थी। वे देश जिनमें दक्षिणी गोलार्ध कैलेंडर इस्तेमाल किया जाता हैं, वहां ३० मार्च को इसे मनाया जाता है।
आदर्श और आलोचनाएँ
गाँधी के कठोर अहिंसा का नतीजा शांतिवाद (pacifism) है, जो की राजनैतिक क्षेत्र से आलोचना का एक मूल आधार है।
विभाजन की संकल्पना
नियम के रूप में गाँधी विभाजन की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि यह उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी।[65] ६ अक्टूबर १९४६ में हरिजन में उन्होंने भारत का विभाजन पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा:
फिर भी, जैक होमर गाँधी के जिन्ना के साथ पाकिस्तान के विषय को लेकर एक लंबे पत्राचार पर ध्यान देते हुए कहते हैं- "हालाँकि गांधी वैयक्तिक रूप में विभाजन के खिलाफ थे, उन्होंने सहमति का सुझाव दिया जिसके तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग अस्थायी सरकार के नीचे समझौता करते हुए अपनी आजादी प्राप्त करें जिसके बाद विभाजन के प्रश्न का फैसला उन जिलों के जनमत द्वारा होगा जहाँ पर मुसलमानों की संख्या ज्यादा है।"[67].
भारत के विभाजन के विषय को लेकर यह दोहरी स्थिति रखना, गाँधी ने इससे हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों तरफ़ से आलोचना के आयाम खोल दिए. मुहम्मद अली जिन्ना तथा समकालीन पाकिस्तानियों ने गाँधी को मुस्लमान राजनैतिक हक़ को कम कर आंकने के लिए निंदा की.विनायक दामोदर सावरकार और उनके सहयोगियों ने गाँधी की निंदा की और आरोप लगाया कि वे राजनैतिक रूप से मुसलमानों को मनाने में लगे हुए हैं तथा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार के प्रति वे लापरवाह हैं और पाकिस्तान के निर्माण के लिए स्वीकृति दे दी है (हालाँकि सार्वजानिक रूप से उन्होंने यह घोषित किया था कि विभाजन से पहले मेरे शरीर को दो हिस्सों में काट दिया जाएगा).[68] यह आज भी राजनैतिक रूप से विवादस्पद है, जैसे कि पाकिस्तानी-अमरीकी इतिहासकार आयेशा जलाल यह तर्क देती हैं कि विभाजन की वजह गाँधी और कांग्रेस मुस्लीम लीग के साथ सत्ता बांटने में इक्छुक नही थे, दुसरे मसलन हिंदू राष्ट्रवादी राजनेता प्रवीण तोगडिया भी गाँधी के इस विषय को लेकर नेतृत्व की आलोचना करते हैं, यह भी इंगित करते हैं की उनके हिस्से की अत्यधिक कमजोरी की वजह से भारत का विभाजन हुआ।
गाँधी ने १९३० के अंत-अंत में विभाजन को लेकर इस्राइल के निर्माण के लिए फिलिस्तीन के विभाजन के प्रति भी अपनी अरुचि जाहिर की थी। २६ अक्टूबर १९३८ को उन्होंने हरिजन में कहा था:
हिंसक प्रतिरोध की अस्वीकृति
जो लोग हिंसा के जरिये आजादी हासिल करना चाहते थे गाँधी उनकी आलोचना के कारण भी थोड़ा सा राजनैतिक आग की लपेट में भी आ गये भगत सिंह, सुखदेव, उदम सिंह, राजगुरु की फांसी के ख़िलाफ़ उनका इनकार कुछ दलों में उनकी निंदा का कारण बनी.[71][72]
इस आलोचना के लिए गाँधी ने कहा,"एक ऐसा समय था जब लोग मुझे सुना करते थे की किस तरह अंग्रेजो से बिना हथियार लड़ा जा सकता है क्योंकि तब हथयार नही थे।..पर आज मुझे कहा जाता है कि मेरी अहिंसा किसी काम की नही क्योंकि इससे हिंदू-मुसलमानों के दंगो को नही रोका जा सकता इसलिए आत्मरक्षा के लिए सशस्त्र हो जाना चाहिए."[73]
उन्होंने अपनी बहस कई लेखो में की, जो की होमर जैक्स के द गाँधी रीडर: एक स्रोत उनके लेखनी और जीवन का . १९३८ में जब पहली बार "यहूदीवाद और सेमेटीसम विरोधी" लिखी गई, गाँधी ने १९३० में हुए जर्मनी में यहूदियों पर हुए उत्पीडन (persecution of the Jews in Germany) को सत्याग्रह के अंतर्गत बताया उन्होंने जर्मनी में यहूदियों द्वारा सहे गए कठिनाइयों के लिए अहिंसा के तरीके को इस्तेमाल करने की पेशकश यह कहते हुए की
गाँधी की इन वक्तव्यों के कारण काफ़ी आलोचना हुयी जिनका जवाब उन्होंने "यहूदियों पर प्रश्न" लेख में दिया साथ में उनके मित्रों ने यहूदियों को किए गए मेरे अपील की आलोचना में समाचार पत्र कि दो कर्तने भेजीं दो आलोचनाएँ यह संकेत करती हैं कि मैंने जो यहूदियों के खिलाफ हुए अन्याय का उपाय बताया, वह बिल्कुल नया नही है।...मेरा केवल यह निवेदन हैं कि अगर हृदय से हिंसा को त्याग दे तो निष्कर्षतः वह अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।[75] उन्होंने आलोचनाओं का उत्तर "यहूदी मित्रो को जवाब"[76] और "यहूदी और फिलिस्तीन"[77] में दिया यह जाहिर करते हुए कि "मैंने हृदय से हिंसा के त्याग के लिए कहा जिससे निष्कर्षतः अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।[75]
यहूदियों की आसन्न आहुति को लेकर गाँधी के बयान ने कई टीकाकारों की आलोचना को आकर्षित किया।[78]मार्टिन बूबर (Martin Buber), जो की स्वयं यहूदी राज्य के एक विरोधी हैं ने गाँधी को २४ फरवरी, १९३९ को एक तीक्ष्ण आलोचनात्मक पत्र लिखा. बूबर ने दृढ़ता के साथ कहा कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों के साथ जो व्यवहार किया गया वह नाजियों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए व्यवहार से भिन्न है, इसके अलावा जब भारतीय उत्पीडन के शिकार थे, गाँधी ने कुछ अवसरों पर बल के प्रयोग का समर्थन किया।[79]
गाँधी ने १९३० में जर्मनी में यहूदियों (persecution of the Jews in Germany) के उत्पीडन को सत्याग्रह के भीतर ही सन्दर्भित कहा। नवम्बर १९३८ में उपरावित यहूदियों के नाजी उत्पीडन के लिए उन्होंने अहिंसा के उपाय को सुझाया:
दक्षिण अफ्रीका के प्रारंभिक लेख
गाँधी के दक्षिण अफ्रीका को लेकर शुरुआती लेख काफी विवादस्पद हैं ७ मार्च, १९०८ को, गाँधी ने इंडियन ओपिनियन में दक्षिण अफ्रीका में उनके कारागार जीवन के बारे में लिखा "काफिर शासन में ही असभ्य हैं - कैदी के रूप में तो और भी. वे कष्टदायक, गंदे और लगभग पशुओं की तरह रहते हैं।"[82] १९०३ में अप्रवास के विषय को लेकर गाँधी ने टिप्पणी की कि "मैं मानता हूँ कि जितना वे अपनी जाति की शुद्धता पर विश्वास करते हैं उतना हम भी...हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो गोरी जाति है उसे ही श्रेष्ट जाति होनी चाहिए."[83] दक्षिण अफ्रीका में अपने समय के दौरान गाँधी ने बार-बार भारतीयों का अश्वेतों के साथ सामाजिक वर्गीकरण को लेकर विरोध किया, जिनके बारे में वे वर्णन करते हैं कि " निसंदेह पूर्ण रूप से काफिरों से श्रेष्ठ हैं".[84] यह ध्यान देने योग्य हैं कि गाँधी के समय में काफिर का वर्तमान में (a different connotation) इस्तेमाल हो रहे अर्थ से एक अलग अर्थ था (its present-day usage). गाँधी के इन कथनों ने उन्हें कुछ लोगों द्वारा नसलवादी होने के आरोप को लगाने का मौका दिया है।[85]
इतिहास के दो प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र भाना और गुलाम वाहेद, जो दक्षिण अफ्रीका के इतिहास पर महारत रखते हैं, ने अपने मूलग्रन्थ द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १८९३ - १९१४ में इस विवाद की जांच की है।(नई दिल्ली:मनोहर,२००५).[86] अध्याय एक के केन्द्र में,"गाँधी, औपनिवेशिक स्थिति में जन्मे अफ्रीकी और भारतीय" जो कि "श्वेत आधिपत्य" में अफ्रीकी और भारतीय समुदायों के संबंधों पर है तथा उन नीतियों पर जिनकी वजह से विभाजन हुआ (और वे तर्क देते हैं कि इन समुदायों के बीच संघर्ष लाजिमी सा है) इस सम्बन्ध के बारे में वे कहते हैं, "युवा गाँधी १८९० में उन विभाजीय विचारों से प्रभावित थे जो कि उस समय प्रबल थीं।"[87] साथ ही साथ वे यह भी कहते हैं, "गाँधी के जेल के अनुभव ने उन्हें उन लोगों कि स्थिति के प्रति अधीक संवेदनशील बना दिया था।..आगे गाँधी दृढ़ हो गए थे; वे अफ्रीकियों के प्रति अपने अभिव्यक्ति में पूर्वाग्रह को लेकर बहुत कम निर्णायक हो गए और वृहत स्तर पर समान कारणों के बिन्दुओं को देखने लगे थे। जोहान्सबर्ग जेल में उनके नकारात्मक दृष्टिकोण में ढीठ अफ्रीकी कैदी थे न कि आम अफ्रीकी."[88]
दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला गाँधी के अनुयायी हैं,[50] २००३ में गाँधी के आलोचकों द्वारा प्रतिमा के अनावरण को रोकने की कोशिश के बावजूद उन्होंने उसे जोहान्सबर्ग में अनावृत किया।[85] भाना और वाहेद ने अनावरण के इर्द-गिर्द होने वाली घटनाओं पर द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १९१३-१९१४ में टिप्पणी किया है। अनुभाग " दक्षिण अफ्रीका के लिए गाँधी के विरासत" में वे लिखते हैं " गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका के सक्रिय कार्यकर्ताओं के आने वाली पीढियों को श्वेत अधिपत्य को ख़त्म करने के लिये प्रेरित किया। यह विरासत उन्हें नेल्सन मंडेला से जोड़ती हैं।.माने यह कि जिस कम को गाँधी ने शुरू किया था उसे मंडेला ने खत्म किया।"[89] वे जारी रखते हैं उन विवादों का हवाला देते हुए जो गाँधी कि प्रतिमा के अनावरण के दौरान उठे थे।[90] गाँधी के प्रति इन दो दृष्टिकोणों के प्रतिक्रिया स्वरुप, भाना और वाहेद तर्क देते हैं : वे लोग को दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के पश्चात अपने राजनैतिक उद्देश्य के लिए गाँधी को सही ठहराना चाहते हैं वे उनके बारे में कई तथ्यों को नजरंदाज करते हुए कारन में कुछ ज्यादा मदद नही करते; और जो उन्हें केवल एक नस्लवादी कहते हैं वे भी ग़लत बयानी के उतने ही दोषी हैं/विकृति के उतने ही दोषी हैं।"[91]
राज्य विरोधी
गाँधी राज विरोधी (anti statist) उस रूप में थे जहाँ उनका दृष्टिकोण उस भारत का हैं जो कि किसी सरकार के अधीन न हो.[92] उनका विचार था कि एक देश में सच्चे स्वशासन (self rule) का अर्थ है कि प्रत्यक व्यक्ति ख़ुद पर शासन करता हैं तथा कोई ऐसा राज्य नही जो लोगों पर कानून लागु कर सके.[93][94] कुछ मौकों पर उन्होंने स्वयं को एक दार्शनिक अराजकतावादी कहा है (philosophical anarchist).[95] उनके अर्थ में एक स्वतंत्र भारत का अस्तित्व उन हजारों छोटे छोटे आत्मनिर्भर समुदायों से है (संभवतः टालस्टोय का विचार) जो बिना दूसरो के अड़चन बने ख़ुद पर राज्य करते हैं। इसका यह मतलब नही था कि ब्रिटिशों द्वारा स्थापित प्रशाशनिक ढांचे को भारतीयों को स्थानांतरित कर देना जिसके लिए उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान को इंगलिस्तान बनाना है.[96] ब्रिटिश ढंग के संसदीय तंत्र पर कोई विश्वास न होने के कारण वे भारत में आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को भंग कर प्रत्यक्ष लोकतंत्र (direct democracy) प्रणाली को[97] स्थापित करना चाहते थे।[98]
गांधी जी की आलोचना
गांधी के सिद्धान्तों और करनी को लेकर प्रयः उनकी आलोचना भी की जाती है। उनकी आलोचना के मुख्य बिन्दु हैं-
इन्हें भी देखेंटिप्पणियाँआगे के अध्ययन के लिए
हमारे देश के ग्यारहवें राष्ट्रपति, एक ख्याति प्राप्त कुशल वैज्ञानिक, लेखक तथा युवा पीढ़ी के पथ प्रदर्शक, जी हाँ हम बात कर रहे हैं स्वर्गीय श्री ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जी (A.P.J. Abdul Kalam) की, जो न जाने कितने ही लोगों के लिए प्रेरणा (Inspiration) बन गए | ये एक उच्च विचारों वाले व्यक्ति थे जिन्होंने तमिलनाडु के छोटे से गाँव में जन्म लिया था | अपनी कड़ी तपस्या और उच्च सिद्धांतों के कारण ही वे इस मुकाम तक पहुंचे | भारत के हर घर में उनका नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है, यहाँ का हर विद्यार्थी उनको अपना आदर्श (Idol) स्वरूप मानता है | इनके कई कथनों ने युवाओं को एक नई दिशा प्रदान की |
कलाम साहब की पुण्य तिथि (27 जुलाई 2015) भी आने को ही है तो आज हम उनके स्मरण में आपको उनके जीवन की विस्तृत जानकारी देंगे या यूँ कह लीजिये की हम आपको ए. पी. जे. अब्दुल कलाम की जीवनी (Dr. A.P.J. Abdul Kalam Biography in Hindi) के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे | हम आपको इस लेख द्वारा बताएँगे कि कैसे उन्होंने एक छोटे से गाँव से लेकर राष्ट्रपति बनने का अद्भुत सफ़र तय किया | A.P.J. Abdul Kalam Autobiography in Hindi
A.P.J. Abdul Kalam का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु के छोटे से गाँव में हुआ, जिसका नाम धनुषकोडी है | इस गाँव में वे अपने संयुक्त परिवार के साथ रहते थे | उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी | उनके पिता मछुआरों को नाव किराए पर देते थे तथा उनकी माता गृहिणी थीं | A.P.J. Abdul Kalam साहब ने अपनी शिक्षा का आरम्भ रामेश्वरम के एक प्राथमिक विद्यालय से किया | कलाम साहब ने अपनी पढ़ाई पूरी करने व् घर की आर्थिक सहायता हेतु अख़बार बेचने का कार्य आरम्भ किया |
A.P.J. Abdul Kalam ने बारहवीं रामनाथपुरम में स्थित स्च्वार्त्ज़ मैट्रिकुलेशन स्कूल (Schwartz Higher Secondary School) में सम्पन्न की | तत्पश्चात उन्होंने स्नातक की उपाधि (Bachelor Degree) प्राप्त करने हेतु सैंट जोसफ कॉलेज (St. Joseph College) में दाखिला लिया जो तिरुचिराप्पल्ली में स्थित है | किन्तु यहाँ उनकी शिक्षा का अंत नहीं हुआ, उन्हें पढने व् सीखने का बहुत शौक था | वह आगे की पढ़ाई हेतु 1955 में मद्रास जा पहुंचे जहां से उन्होंने 1958 में अंतरिक्ष विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की | उनका सपना था कि वह भारतीय वायु सेना में फाइटर प्लेन के चालक यानि पायलट (Pilot) बन सकें, परन्तु यह पूर्ण न हो पाया, पर फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी | इसके पश्चात उन्होंने भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान (DRDO) में प्रवेश किया जहां उन्होंने हावरक्राफ्ट परियोजना का सफल संचालन किया | परन्तु DRDO में अपने कार्यों से संतुष्ट न होने के कारण उन्होंने इसे छोड़ दिया |
इसके पश्चात उन्होंने 1962 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) में प्रवेश किया | इसरो (ISRO) में A.P.J. Abdul Kalam ने कई परियोजनाओं का सफलतापूर्वक संचालन किया, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण था उनके द्वारा भारत के पहले उपग्रह “पृथ्वी” जिसे SLV3 भी कहा जा सकता है, का पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित किया जाना | इस कार्य को Dr. A.P.J. Abdul Kalam ने 1980 में बहुत ही मेहनत तथा लगन के साथ संपन्न किया | उनकी इसी सफलता के बाद भारत भी अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब का सदस्य बन पाया | इस दौर में वह इसरो (ISRO) में भारत के उपग्रह प्रक्षेपण यान परियोजना के निदेशक के पद पर नियुक्त थे | इसरो के कार्यकाल के दौरान ही उन्होंने और भी उपलब्धियां हासिल कीं जैसे – नासा की यात्रा, प्रसिद्ध वैज्ञानिक राजा रमन्ना के साथ मिलकर भारत का पहला परमाणु परीक्षण, गाइडेड मिसाइल्स को डिज़ाइन करना |
इन सबके पश्चात A.P.J. Abdul Kalam एक सफल तथा ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक (Scientist) बन चुके थे | 1981 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया | 1982 में वह पुन: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के निदेशक के रूप में विद्यमान हुए | अब उन्होंने स्वदेशी लक्ष्य भेदी नियंत्रित प्रक्षेपास्त्र (गाइडेड मिसाइल्स) की तरफ अपना ध्यान केन्द्रित किया |
Dr. A.P.J. Abdul Kalam को 1990 में फिर पद्म विभूषण से नवाज़ा गया | तत्पश्चात वे 1992 से लेकर 1999 तक के कार्यकाल में रक्षा मंत्री के विज्ञान सलाहकार के पद पर नियुक्त रहे, साथ ही वह सुरक्षा शोध और विकास विभाग के सचिव भी थे | 1997 में उनका भारत के प्रति योगदान देखते हुए उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया | उन्हीं के नेतृत्व में 1998 में भारत ने अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया | कलाम साहब की ही देन है कि भारत आज परमाणु हथियार के निर्माण में सफल हो पाया है | इस दौर में वह भारत के सबसे प्रसिद्ध एवं सफल परमाणु वैज्ञानिक (Nuclear Scientist) थे |
2002 में उनके प्रति भारत की जनता में सम्मान देखते हुए, जीवन की उपलब्धियों तथा भारत के प्रति उनका लगाव देखते हुए एन. डी. ए. ने उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया | फलस्वरूप वह चुनाव में विजयी होकर 2002 में भारत के राष्ट्रपति (President) के रूप में हमारे सामने आये | उन्हें “जनता का राष्ट्रपति (People’s President)” कहकर संबोधित किया जाने लगा |
उनके इस कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई सभाएं संबोधित कीं जिनमें उन्होंने भारत के तथा यहाँ रह रहे युवाओं के भविष्य को बेहतर बनाने हेतु बातों पर जोर दिया | यह तो हम सभी जानते हैं कि A.P.J. Abdul Kalam अपनी निजी ज़िंदगी में एक सरल तथा अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे | वे बच्चों से बहुत अधिक स्नेह करते थे, उन्हें हमेशा ऐसी सीख देते थे जो उनके भविष्य को बेहतर बनाने में सहायता करे | वे राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, किन्तु राजनीति में रहकर वे देश के विकास के बारे में सोचते थे | वे जानते थे कि युवाओं का बेहतर विकास ही देश को आगे लेकर जा सकता है | वे चाहते थे कि परमाणु हथियारों के क्षेत्र में भारत एक बड़ी शक्ति के रूप में जाना जाए |
उनका कहना था कि “2000 वर्षों के इतिहास में भारत पर 600 वर्षों तक अन्य लोगों ने शासन किया है। यदि आप विकास चाहते हैं तो देश में शांति की स्थिति होना आवश्यक है और शांति की स्थापना शक्ति से होती है। इसी कारण प्रक्षेपास्त्रों को विकसित किया गया ताकि देश शक्ति सम्पन्न हो।“
A.P.J. Abdul Kalam का राष्ट्रपति कार्यकाल 2007 में समाप्त हुआ | इसके पश्चात वह कई जगहों पर प्रोफेसर (Professor) के तौर पर कार्यरत रहे जैसे- शिलोंग, अहमदाबाद तथा इंदौर के भारतीय प्रबंधन संस्थानों, व् बैंगलोर के भारतीय विज्ञान संस्थान में | उसके बाद वह अन्ना विश्वविद्यालय में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग (Aerospace Engineering) के प्रोफेसर रहे | A.P.J. Abdul Kalam ने भारत के कई अन्य प्रसिद्ध शैक्षिक संस्थानों में भी अपना योगदान दिया |
आप में से शायद बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि वे गीता और कुरान, दोनों का अनुसरण करते थे | उन्हें भक्ति गीत सुनने का तथा वाद्य यन्त्र बजाने का भी बहुत शौक था | उनका लगाव भारत की संस्कृति (Tradition) के प्रति बहुत अधिक था |
27 जुलाई 2015 को ये “मिसाइल मैन (Missile Man)” हम सब को छोड़ कर चले गए तथा उनका जाना हमारे देश के लिए कभी पूर्ण न होने वाली क्षति (Loss) थी | कलाम साहब की मृत्यु की वजह दिल का दौरा था | यह उस वक़्त हुआ जब वह शिलोंग के भारतीय प्रबंधन संस्थान में एक व्याख्यान (Lecture) दे रहे थे | 28 जुलाई को उन्हें दिल्ली में तथा 29 जुलाई को उन्हें मदुरै में श्रद्धांजलि (Tribute) दी गयी | 30 जुलाई को उन्हें उन्ही के नगर रामेश्वरम के पी करूम्बु ग्राउंड में पूरे सम्मान के साथ दफनाया गया तथा यहाँ उन्हें 3,50,000 से ज्यादा नागरिक श्रध्दांजलि देने पहुंचे | शायद आप जानते नहीं होंगे की गूगल भी उनकी पुण्य तिथि पर अपने मुख्य पृष्ठ (Home Page) पर काला रिबन दिखा रहा था | भारत सरकार ने उनके सम्मान (Honor) में सात दिवसीय राजकीय शोक की घोषणा की |
संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वर्गीय डॉक्टर ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के 79 वें जन्मदिन को विश्व विद्यार्थी दिवस (World Student Day) के रूप में मनाया गया | उन्होंने युवाओं को प्रेरित (Inspire) करने हेतु कई किताबें लिखीं जो बहुत ही प्रभावशाली हैं – विंग्स ऑफ़ फायर, ए मैनिफेस्टो फॉर चेंज, इंस्पायरिंग थॉट्स, इत्यादि | ये किताबें भी कलाम साहब ( Dr. A.P.J. Abdul Kalam) की तरह प्रेरणादायक (Inspirational) हैं |
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Dr. A.P.J. Abdul Kalam ऐसे शख्स थे जो एक ग़रीब परिवार से आये और अपनी मेहनत (Hard Work) और अनुशासन के कारण एक सफल वैज्ञानिक (Scientist), एक लोकप्रिय राष्ट्रपति तथा एक आदर्श प्रोफेसर बन गए | अगर आप इनके जीवन का गहन अध्ययन करेंगे तो जान पाएंगे कि हालात को जिम्मेदार ठहराते हुए हार मानकर बैठने वाले लोग कभी आगे नहीं बढ़ते | विश्व भर के लोग, बच्चों के प्रति उनके स्नेह, उनकी सरलता तथा विनम्रता की प्रशंसा किया करते हैं | कलाम साहब में सीखने की भूख थी | इतनी विश्व प्रसिद्धि पाने के बाद भी वह बेहद सरल और साधारण इंसान थे |
Chandra SChandra Shekhar Azad Life Story in Hindiआजादी पाने के लिए देश की बलिवेदी पर अनगिनत क्रांतिकारी बलिदान हो गए । उनमें से एक प्रमुख क्रांतिकारी Chandra Shekhar Azad थे । उनका जन्म २३ जुलाई, १९०६ को मध्यप्रदेश के भाँवर में हुआ था ।
चंद्रशेखर कट्टर सनातन धर्मी ब्राहाण परिवार में पैदा हुए थे । इनके पिता नेक और धर्मनिष्ठ थे और उनमें अपने पांडित्य का कोई अहंकार नहीं था । वे बहुत स्वाभिमानी और दयालु प्रवृति के थे । घोर गरीबी में उन्होंने दिन बितायें थे और इसी कारण चंद्रशेखर की अच्छी शिक्षा नहीं हो पाई, लेकिन पढ़ना – लिखना उन्होंने गाँव के ही एक बुजुर्ग श्री मनोहरलाल त्रिवेदी से सिख लिया था, जो उन्हें घर पर निशुल्क पढ़ाते थे ।
बचपन से ही Chandra Shekhar Azad में भारतमाता को स्वतंत्र कराने की भावना कूट – कूटकर भरी हुई थी । इसी कारण उन्होंने स्वयं अपना नाम आजाद रख लिया था । उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना ने उन्हें सदा के लिए क्रांति के पथ पर अग्रसर कर दिया । १३ अप्रैल, १९१९ को जलियांवाला बाग़ अमृतसर में जनरल डायर ने जो नरसंहार किया, उसके विरोध में तथा रौलट एक्ट के विरुद्ध जो जन – आंदोलन प्रारंभ हुआ था, वह दिन – प्रतिदिन और जोर पकड़ता जा रहा था ।
इसी आंदोलन के दौरान प्रिंस ऑफ़ वेल्स मुम्बई आए और वे जहाँ – जहाँ गए, वहां – वहां भारतीयों ने उनका बहिष्कार किया । जब राजकुमार बनारस पहुँचने वाले थे, उस समय वहां भी उनके बहिष्कार का जुलूस में युवा चंद्रशेखर अपने साथीयों के साथ शामिल थे । पुलिस वाले जुलूस को तितर – बितर करने के लिए लाठी घुमाते हुए आ रहे थे । यह देख Chandra Shekhar Azad के मित्रगण लाठी के प्रहार से बचने के लिए इधर – उधर फ़ैल गए । केवल चंद्रशेखर ही अपने स्थान पर निडर खड़े रहे ।
इसी बीच कुछ आंदोलनकर्ता, जो एक विदेशी कपड़ें की दुकान पर धरना दे रहे थे, उन पर पुलिस का एक दारोगा डंडे बरसाने लगा । यह अत्याचार Chandra Shekhar Azad से देखा नहीं गया और उन्होंने पास पड़ा एक पत्थर उठाकर उस दारोगा के माथे पर दे मारा । निशान अचूक था । दारोगा घायल होकर वहीँ जमीन पर गिर गया, लेकिन चंद्रशेखर को ऐसा करते हुए एक सिपाही ने देख लिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन इस गिरफ्तारी से चंद्रशेखर जरा भी भयभीत या विचलित नहीं हुए । उनकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस वालोँ ने उनके कमरे की तलाशी ली तो उनके कमरे में लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी समेत अनेक राष्ट्रीय नेताओँ के चित्र मिले, जिसके आधार पर पुलिस वालोँ ने उन पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगा दिया ।
इसके बाद उन्हें थाने में ले जाकर हवालात में बंद कर दिया गया । दिसंबर की कड़ाके वाली ठंड की रात थी और ऐसे में Chandra Shekhar Azad को ओढ़ने – बिछाने के लिए कोई बिस्तर नहीं दिया गया क्योंकि पुलिस वालोँ का ऐसा सोचना था कि यह लड़का ठंड से घबरा जाएगा और माफी माँग लेगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ । यह देखने के लिए लड़का क्या कर रहा है और शायद वह ठंड से ठिठुर रहा होगा, आधी रात को इंसपेक्टर ने चंद्रशेखर की कोठरी का ताला खोला तो वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि चंद्रशेखर दंड – बैठक लगा रहे थे और उस कड़कड़ाती ठंड में भी पसीने से नहा रहे थे ।
दूसरे दिन Chandra Shekhar Azad को न्यायालय में मजिस्ट्रेट के सामने ले जाया गया । उन दिनों बनारस में एक बहुत कठोर मजिस्ट्रेट नियुक्त था । उसी अंग्रेज मजिस्ट्रेट के सामने १५ वर्षीय चंद्रशेखर को पुलिस ने पेश किया ।
मजिस्ट्रेट ने बालक से पूछाः “तुम्हारा नाम ?” बालक ने निर्भयता से उत्तर दिया – “Azad” । “पिता का नाम ?” – मजिस्ट्रेट ने कड़े स्वर में पूछाः । ऊँची गरदन किए हुए बालक ने तुरंत उत्तर दिया – “स्वाधीन” । युवक की हेकड़ी देखकर न्यायाधीश क्रोध से भर उठा । उसने फिर पूछाः – “तुम्हारा घर कहाँ है ?” चंद्रशेखर ने गर्व से उत्तर दिया – “जेल की कोठरी” । न्यायाधीश ने क्रोध में चंद्रशेखर को १५ बेंत (कोड़े) लगाने की सजा दी ।
बेंत (कोड़े) लगाने के लिए चंद्रशेखर को जेलखाने में ले जाया गया । बनारस का जेलर बड़े ही क्रूर स्वभाव का व्यक्ति था । कैदियों को सजा देने में उसे बड़ा आनंद आता था । इसलिए बेंत (कोड़े) लगवाने का कार्य उसे ही सौंपा गया । कोड़े लगवाने के लिए उसने Chandra Shekhar Azad को एक तख्ते से बंधवा दिया । इस समय उनके शरीर पर एक लंगोट के सिवाय अन्य कोई वस्त्र नहीं था । बेंत (कोड़े) लगाने वाले जल्लाद को कोड़े लगाने का आदेश दिया और फिर चंद्रशेखर पर तडातड़ बेंत (कोड़े) पड़ने लगे ।
लेकिन चंद्रशेखर भी अपनी हिम्मत के पक्के थे । उनकी हिम्मत व सहनशीलता ने बनारस के उस निर्दयी जेलर को भी हिला दिया । शरीर पर जबरदस्त पड़ने वाली बेंतों (कोड़े) की मार भी चंद्रशेखर के होंठों की मुस्कराहट और चेहरे पर चमचमाते देशभक्ति के तेज को न छीन सकी । हर बेंत (कोड़े) पर वह ‘भारतमाता की जय’ और ‘वंदेमातरम्’ का नारा लगाते रहे । यह सब देखकर वह जेलर झुंझला उठा और बोला – “किस मिट्टी का बना है यह लड़का ?” पास खड़े जेल के अन्य अफसर और उपस्थित लोग भी चंद्रशेखर की इस सहनशक्ति को बहुत आश्चर्य के साथ देखते रहे ।
१५ बेंतों ( कोड़े ) की सजा के पश्चात, जेल के नियमानुसार तीन आने पैसे, जेलर ने चंद्रशेखर को दिए, लेकिन Chandra Shekhar Azad ने वह पैसे लेकर जेलर के मुँह पर ही फेंक दिए । घावों पर जेल के डोक्टर ने दवा लगा दी, फिर भी खून बहना बंद नहीं हुआ । वह किसी तरह पैदल ही घिसटते हुए जेल से बाहर निकले, लेकिन अब तक चंद्रशेखर की वीरता की कहानी बनारस के घर – घर में पहुँच गयी थी और जेल के दरवाजे पर शहर की जनता फूल – मालाएँ लेकर उनका स्वागत करने के लिए पहुँच चुकी थी । सबने मालाएँ पहनाकर उनका स्वागत किया और उन्हें अपने कंधों पर उठा लिया । इसके साथ ही इन नारों से आकाश गूंज उठा – ‘चंद्रशेखर आजाद की जय, भारतमाता की जय’ ।
इस तरह १५ बेंतों (कोड़े) की सजा ने किशोर अवस्था में ही Chandra Shekhar Azad को एक लोकप्रिय नेता के रूप में प्रसिद्ध कर दिया । चंद्रशेखर को मिलने वाली सजा दर्दनाक व क्रूर अवश्य थी, लेकिन इस घटना के बाद उनकी भारतमाता के प्रति श्रद्धा और बलवती हुई, क्रांति की चिनगारियाँ उनके मन में धीरे – धीरे आग के रूप में परिवर्तित होने लगीं । आजादी का परवान उनके सिर पर चढ़ गया और अब उनके जीवन में केवल एक ही संकल्प शेष रह गया और वह था – देश जो अंग्रेजो की गुलामी से आजाद कराना ।
पंद्रह वर्ष की उम्र में घटी यह घटना उनके जीवन का वह महत्वपूर्ण अध्याय थी जिसके कारण वह चंद्रशेखर तिवारी से चंद्रशेखर आजाद बने और क्रांतिकारीयों की श्रेणियों में गिने जाने लगे । कम उम्र में ही Chandra Shekhar Azad अनेकानेक युवाओं तथा भगत सिंह, सुखदेव जैसे क्रांतिकारीयों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बने और अपने जीवन की आहुति देकर देश की स्वाधीनता का संकल्प पूर्ण कर गए ।
हम Aasaan Hai की और से भारत के इस महान क्रांतिवीर Chandra Shekhar Azad को सत सत नमन करते है ।
Chandra Shekhar Azad अमर रहो. प्रिय मित्रो आपको भारतमाता के लाल Chandra Shekhar Azad की यह Life Story in Hindi कैसी लगी वो Comment के माध्यम से जरुर जरुर बताइयेगा.
और यह Chandra Shekhar Azad Story in Hindi Article कोअपने मित्रो के साथ Share करना ना भूले Stephen Hawking Real Life Inspirational Storyप्रसिद्ध वैज्ञानिक Stephen Hawking की जिंदगी कुछ ऐसी है जो सबको हैरान कर सकती है। आज की परिस्थिति में वे न तो चल सकते हैं, न बोल सकते हैं और न ही वे अपने हाथोँ से कोई काम कर सकते हैं। उनका शरीर किसी भी तरह का कोई भी काम करने में पूरी तरह से अक्षम व असमर्थ है। वे केवल कम्प्यूटर के माध्यम से संकेत देते रहते हैं कि उन्हें क्या चाहिए, वे क्या कहना चाहते हैं और क्या करना चाहते हैं? इन सबके बावजूद वे एक महान वैज्ञानिक हैं और लगातार अपना काम कर रहे हैं।
ऐसा नहीं था कि पैदाईशी उन्हें कोई बीमारी थी। पहले तो वे पूर्णतया स्वस्थ थे, लेकिन 21 वर्ष की उम्र में अचानक ही इस बीमारी का उनके जीवन में आगमन हो गया, जब वे ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय में स्नातक पाठ्यक्रम के तीसरे वर्ष के विधार्थी थे। उस समय बीमारी के कारण उनकी शारीरिक गतिविधियाँ प्रभावित होने लगी और वे सीढ़ियों पर चढ़ते हुए लडखडाने लगे। एक बार जब स्केटिंग करते हुए वे बर्फ़ पर गिर गए तब उन्हें होस्पिटल ले जाया गया और फिर जैसे-जैसे डॉक्टरों की जाँच आगे बढ़ी, बीमारी की गंभीरता सामने आने लगी। उन्हें पता चला कि वे एक बीमारी से ग्रस्त हो चुके थे, जिसका नाम था – एमायोट्रोफिक लैटरल स्कलीरोसिस।
यह एक ऐसी बीमारी है, जिसमें व्यक्ति का मस्तिष्क अपने शरीर पर से नियंत्रण खो देता है। उस समय डॉक्टरों का कहना था कि स्टीफ़न अब अधिकतम दो साल तक ही जिंदा रह पाएंगे, लेकिन इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या होगी कि वे इस बीमारी के बावजूद अब भी जीवित हैं। उन्हें इस बीमारी से लड़ते हुए 50 वर्ष हो गए, लेकिन यह बीमारी अभी भी उन्हें हरा नहीं पाई। इसका कारण बस उनकी सकारात्मक सोच व उनका हौसला है, जिसने उन्हें जिंदगी की सबसे विवश कर देने वाली परिस्थितियों में भी एक सफल तथा प्रसिद्ध वैज्ञानिक के रूप में स्थापित कर दिया है।
स्टीफ़न ने एक साक्षात्कार में बताया कि जब इस बीमारी के बारे में उन्हें पहली बार जानकारी मिली तो वे भी सामान्य लोगों की तरह घबरा गए, सोचने लगे कि कुछ दिनों के बाद उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाएगी और फिर इस अपाहिज शरीर के लिए इतनी पढ़ाई व पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त करने का क्या मतलब होगा? उन्हें लगा कि उनके देखे गए सभी सपनों पर इस बीमारी के कारण विराम लग जाएगा। लेकिन उस बीमारी की स्थिति में भी एक सकारात्मक बात यह थी कि उनका मस्तिष्क पूरी तरह स्वस्थ था, वे अच्छी तरह सोच सकते थे, मानसिक रूप से कार्य कर सकते थे और फिर उन्होंने वही किया, जो एक स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति को करना चाहिए, उन्होंने सकारात्मक सोच व हौसलापूर्ण नजरिये को अपनाया।
आज उनका यह कहना है – “सच कहूं तो कई बार मैं अपनी बीमारी के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ, जिसके कारण मैं अपना पूरा ध्यान शोधकार्य में लगा सका और दूसरे कार्यो से बच गया। मैं थ्योरिटिकल फ़िज़िक्स में काम कर सका और इस काम में मेरी यह बीमारी कहीं बाधा नहीं बनी।” उनका यह भी कहना है कि औरों की नजर में मेरा जीवन सामान्य नहीं है, पर मैं ऐसा नहीं मानता। मैंने जो चाहा, वह किया है। मैं क्षमता, जोश, हिम्मत, उत्साह और धैर्य में किसी से कम नहीं हूँ और न ही अपने जीवन से निराश। पिछले 50 सालों से मैं अपनी जल्दी मृत्यु हो जाने की आशंकाओं में जी रहा हूँ। मैं मृत्यु से डरता नहीं हूँ, पर मुझे मरने की जल्दी भी नहीं है। मेरे पास अब भी बहुत कुछ करने के लिए है।
Stephen Hawking के जीवन का सबसे बड़ा मंत्र है “आशावान बनें और खुद को व्यस्त रखें”
इसी मंत्र के कारण वे आज भी जीवित हैं और उनका कहना है – “मैंने वह किया, जो मैं कर सकता था और उतना किया, जितना मैं चाहता था। मुझसे भी अधिक साहसी और सक्षम लोग बुरी दशा में जी रहे हैं। उनसे किसी की सहानुभूति नहीं है और वे शिकायत भी नहीं करते। दूसरे लोगों को मैं यही कहना चाहूँगा कि विकलांग होना आपकी गलती नहीं है। इसलिए किसी को दोष न दें और न ही सहानुभूति की अपेक्षा रखें। जीवन का यदि आपको विस्तार समझना है तो आपको सकारात्मक और व्यावहारिक सोच रखनी ही होगी। जरूरत यह है कि अपने जीवन की मौजूद स्थितियों में से सबसे बेहतर स्थिति का आप चुनाव करें। वहाँ मन को एकाग्र करें, जहाँ आप बेहतर कर सकते हैं।
इस तरह Stephen Hawking ने अपने जीवन के उदाहरण से यह बात प्रमाणित कर दी कि जीवन की विपदाओं में, बुरी-से-बुरी परिस्थितियों में भी धैर्य, साहस, सकारात्मक, आशावादी सोच व कार्य करने के जज़्बे को अपनाना चाहिए और नकारात्मक नज़रिये का त्याग करना चाहिए, आशावादी सोच ही सफल जीवन की आधारशिला है।
NileSh Kumrecha की और से मैं इस महान वैज्ञानिक और Real Life Hero Stephen Hawking को सलाम करता हूँ ।
Source : अखिल विश्व गायत्री परिवार
स्वामी विवेकानन्द
स्वामी विवेकानन्द( बांग्ला: স্বামী বিবেকানন্দ) (जन्म: १२ जनवरी,१८६३ - मृत्यु: ४ जुलाई,१९०२) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत "मेरे अमरीकी भाइयो एवं बहनों" के साथ करने के लिये जाना जाता है।[5] उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था।
कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली परिवार में जन्मे, विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीव स्वयं परमात्मा का ही एक अवतार हैं; इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का पहले हाथ ज्ञान हासिल किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए कूच की। विवेकानंद के संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धांतों का प्रसार किया , सैकड़ों सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में, विवेकानंद को एक देशभक्त संत के रूप में माना जाता है और इनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
अनुक्रमप्रारंभिक जीवन (1863-88)जन्म एवं बचपन
स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी सन् १८६३ (विद्वानों के अनुसार मकर संक्रान्ति संवत् १९२०)[6] को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था।[7] पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे।[8][9] दुर्गाचरण दत्ता, (नरेंद्र के दादा) संस्कृत और फारसी के विद्वान थे उन्होंने अपने परिवार को 25 की उम्र में छोड़ दिया और एक साधु बन गए।[10] उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं।[10]उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेंद्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक, प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में मदद की।[11][12]
बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के तो थे ही नटखट भी थे। अपने साथी बच्चों के साथ वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था।[12] कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डितजी तक चक्कर में पड़ जाते थे।[13]
शिक्षा
सन् 1871 में, आठ साल की उम्र में, नरेंद्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया जहाँ वे स्कूल गए।[14] 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया। 1879 में, कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद, वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये।[15]
वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित विषयों के एक उत्साही पाठक थे।[16] इनकी वेद, उपनिषद, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। नरेंद्र को भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया गया था,[17]और ये नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम में व खेलों में भाग लिया करते थे। नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेंबली इंस्टिटूशन (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में किया।[18] 1881 में इन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की, और 1884 में कला स्नातक की डिग्री पूरी कर ली।[19][20]
नरेंद्र ने डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, जोहान गोटलिब फिच, बारूक स्पिनोज़ा, जोर्ज डब्लू एच हेजेल, आर्थर स्कूपइन्हार , ऑगस्ट कॉम्टे, जॉन स्टुअर्ट मिल और चार्ल्स डार्विन के कामों का अध्यन किया।[21][22] उन्होंने स्पेंसर की किताब एजुकेशन (1861) का बंगाली में अनुवाद किया। [23][24] ये हर्बर्ट स्पेंसर के विकासवाद से काफी मोहित थे।[25] पश्चिम दार्शनिकों के अध्यन के साथ ही इन्होंने संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्य को भी सीखा।[22] विलियम हेस्टी (महासभा संस्था के प्रिंसिपल) ने लिखा, "नरेंद्र वास्तव में एक जीनियस है। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन उनकी जैसी प्रतिभा वाला का एक भी बालक कहीं नहीं देखा यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।" अनेक बार इन्हें श्रुतिधर( विलक्षण स्मृति वाला एक व्यक्ति) भी कहा गया है।
आध्यात्मिक शिक्षुता - ब्रह्म समाज का प्रभाव
1880 में नरेंद्र, ईसाई से हिन्दू धर्म में रामकृष्ण के प्रभाव से परिवर्तित केशव चंद्र सेन की नव विधान में शामिल हुए, नरेंद्र 1884 से पहले कुछ बिंदु पर, एक फ्री मसोनरी लॉज और साधारण ब्रह्म समाज जो ब्रह्म समाज का ही एक अलग गुट था और जो केशव चंद्र सेन और देवेंद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में था। 1881-1884 के दौरान ये सेन्स बैंड ऑफ़ होप में भी सक्रीय रहे जो धूम्रपान और शराब पीने से युवाओं को हतोत्साहित करता था।
यह नरेंद्र के परिवेश के कारण पश्चिमी आध्यात्मिकता के साथ परिचित हो गया था। उनके प्रारंभिक विश्वासों को ब्रह्म समाज ने जो एक निराकार ईश्वर में विश्वास और मूर्ति पूजा का प्रतिवाद करता था, ने प्रभावित किया और सुव्यवस्थित, युक्तिसंगत, अद्वैतवादी अवधारणाओं , धर्मशास्त्र ,वेदांत और उपनिषदों के एक चयनात्मक और आधुनिक ढंग से अध्यन पर प्रोत्साहित किया।
निष्ठा
एक बार किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखाते हुए नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को क्रोध आ गया। वे अपने उस गुरु भाई को सेवा का पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। और आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक फैला सके। ऐसी थी उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा जिसका परिणाम सारे संसार ने देखा। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में सतत संलग्न रहे।
विवेकानन्द बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्द ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। विवेकानन्द को युवकों से बड़ी आशाएँ थीं। आज के युवकों के लिये इस ओजस्वी सन्यासी का जीवन एक आदर्श है। उनके नाना जी का नाम श्री नंदलाल बसु था।
सम्मलेन भाषण
मेरे अमरीकी भाइयो और बहनों!
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
यात्राएँ
२५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन् १८९३ में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमरीका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे।
वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। परन्तु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। उस परिषद् में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमरीका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। तीन वर्ष वे अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया।[26]
"अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा" यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था। अमरीका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमरीकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को 'गरीबों का सेवक' कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।
विवेकानन्द का योगदान तथा महत्व
उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गये वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवायी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।"
रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।"
वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-"नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गान्धीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन-"‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।"
उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षोँ में विवेकानन्द लगभग सशस्त्र या हिंसक क्रान्ति के जरिये भी देश को आजाद करना चाहते थे। परन्तु उन्हें जल्द ही यह विश्वास हो गया था कि परिस्थितियाँ उन इरादों के लिये अभी परिपक्व नहीं हैं। इसके बाद ही विवेकानन्द ने ‘एकला चलो‘ की नीति का पालन करते हुए एक परिव्राजक के रूप में भारत और दुनिया को खंगाल डाला।
उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें। उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।
उनका यह कालजयी आह्वान इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त में एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई दूसरा साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। विवेकानन्द के जीवन की अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में यदि ऐसा कोई देश है जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत ही है।
उन्होंने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी बेसाख्ता जरूरत है।
यह स्वामी विवेकानन्द का अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या बड़बोलापन नहीं था। यह एक वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी। बीसवीं सदी के इतिहास ने बाद में उसी पर मुहर लगायी।
मृत्यु
विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।" उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन ४ जुलाई १९०२ को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।[28]
उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये १३० से अधिक केन्द्रों की स्थापना की।
विवेकानन्द का शिक्षा-दर्शन
स्वामी विवेकानन्द मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अेंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा को 'निषेधात्मक शिक्षा' की संज्ञा देते हुए कहा है कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो, पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ?
अतः स्वामीजी सैद्धान्तिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है, इसलिए शिक्षा में उन तत्वों का होना आवश्यक है, जो उसके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हो। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में,
स्वामी जी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए तैयार करना चाहते हैं । लौकिक दृष्टि से शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि 'हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने।' पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि 'शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।'
स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त[संपादित करें]
स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं – १. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके।
२. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भन बने।
३. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।
४. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
५. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।
६. शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।
७. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।
८. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये।
९. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय।
१०. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।
महत्त्वपूर्ण तिथियाँ
12 जनवरी 1863 -- कलकत्ता में जन्म
1879 -- प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता में प्रवेश
1880 -- जनरल असेम्बली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश
नवंबर 1881 -- रामकृष्ण परमहंस से प्रथम भेंट
1882-86 -- रामकृष्ण परमहंस से सम्बद्ध
1884 -- स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण; पिता का स्वर्गवास
1885 -- रामकृष्ण परमहंस की अन्तिम बीमारी
16 अगस्त 1886 -- रामकृष्ण परमहंस का निधन
1886 -- वराहनगर मठ की स्थापना
जनवरी 1887 -- वराह नगर मठ में संन्यास की औपचारिक प्रतिज्ञा
1890-93 -- परिव्राजक के रूप में भारत-भ्रमण
25 दिसम्बर 1892 -- कन्याकुमारी में
13 फ़रवरी 1893 -- प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान सिकन्दराबाद में
31 मई 1893 -- मुम्बई से अमरीका रवाना
25 जुलाई 1893 -- वैंकूवर, कनाडा पहुँचे
30 जुलाई 1893 -- शिकागो आगमन
अगस्त 1893 -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो॰ जॉन राइट से भेंट
11 सितम्बर 1893 -- विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में प्रथम व्याख्यान
27 सितम्बर 1893 -- विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में अन्तिम व्याख्यान
16 मई 1894 -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण
नवंबर 1894 -- न्यूयॉर्क में वेदान्त समिति की स्थापना
जनवरी 1895 -- न्यूयॉर्क में धार्मिक कक्षाओं का संचालन आरम्भ
अगस्त 1895 -- पेरिस में
अक्टूबर 1895 -- लन्दन में व्याख्यान
6 दिसम्बर 1895 -- वापस न्यूयॉर्क
22-25 मार्च 1896 -- फिर लन्दन
मई-जुलाई 1896 -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान
15 अप्रैल 1896 -- वापस लन्दन
मई-जुलाई 1896 -- लंदन में धार्मिक कक्षाएँ
28 मई 1896 -- ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से भेंट
30 दिसम्बर 1896 -- नेपाल से भारत की ओर रवाना
15 जनवरी 1897 -- कोलम्बो, श्रीलंका आगमन
जनवरी, 1897 -- रामनाथपुरम् (रामेश्वरम) में जोरदार स्वागत एवं भाषण
6-15 फ़रवरी 1897 -- मद्रास में
19 फ़रवरी 1897 -- कलकत्ता आगमन
1 मई 1897 -- रामकृष्ण मिशन की स्थापना
मई-दिसम्बर 1897 -- उत्तर भारत की यात्रा
जनवरी 1898 -- कलकत्ता वापसी
19 मार्च 1899 -- मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना
20 जून 1899 -- पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा
31 जुलाई 1899 -- न्यूयॉर्क आगमन
22 फ़रवरी 1900 -- सैन फ्रांसिस्को में वेदान्त समिति की स्थापना
जून 1900 -- न्यूयॉर्क में अन्तिम कक्षा
26 जुलाई 1900 -- योरोप रवाना
24 अक्टूबर 1900 -- विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि देशों की यात्रा
26 नवम्बर 1900 -- भारत रवाना
9 दिसम्बर 1900 -- बेलूर मठ आगमन
10 जनवरी 1901 -- मायावती की यात्रा
मार्च-मई 1901 -- पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा
जनवरी-फरवरी 1902 -- बोध गया और वाराणसी की यात्रा
मार्च 1902 -- बेलूर मठ में वापसी
4 जुलाई 1902 -- महासमाधि
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